पेट्रोल-डीजल की कीमतों से यूं तेल निकाल रही सरकार, जानें विंडफॉल गेन

नई दिल्ली 

पेट्रोल-डीजल की कीमतें प्रतिदिन नया रिकॉर्ड बना रही हैं. मुंबई में पेट्रोल की कीमतें 90 रुपये प्रति लीटर के स्तर के पार हैं तो राजधानी दिल्ली में पेट्रोल 80 रुपये प्रति लीटर के स्तर के ऊपर बिक रहा है. ऐसे में केन्द्र सरकार समेत राज्य सरकारों पर बड़ा दबाव है कि आम आदमी को राहत पहुंचाने के लिए वह अपने टैक्स दरों में कटौती करे जिससे पेट्रोल-डीजल को सामान्य कीमत पर बेचा जा सके. लेकिन ऐसा नहीं किया जा सकता.

दरअसल पेट्रोल-डीजल की कीमतों को निर्धारित करने के फॉर्मूले पर लगातार सवाल उठा रहा है. इन सवालों के बीच केन्द्र सरकार अपने राजस्व को होने वाले नुकसान के चलते कटौती करने से मना कर रही है तो राज्य सरकारें अपनी कमाई का सबसे बड़ा जरिए गंवाने के लिए तैयार नहीं हैं. पेट्रोल-डीजल की कीमतों में आधे से अधिक हिस्सा केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा लगाए जा रहे टैक्स का है. यही कारण है कि मुंबई में पेट्रोल 90 रुपये प्रति लीटर के स्तर पर पहुंचने वाला है और दिल्ली में 80 रुपये के स्तर पर बिक रहा है.

हालांकि पेट्रोल-डीजल की कीमतों को निर्धारित करने के फॉर्मूले को देखें तो साफ है कि इन टैक्सों से सरकार की बड़ी आमदनी हो रही है. इस फॉर्मूले के ऐसे पक्ष भी हैं जहां सरकार समेत तेल कंपनियों को दोहरा फायदा भी हो रहा है जिसे अर्थशास्त्र की भाषा में विंडफॉल गेन कह सकते हैं. इन दोनों फायदों के चलते वैश्विक स्तर पर जैसे ही कच्चे तेल की कीमत में इजाफा होता है केन्द्र और राज्य सरकारों समेत देश में पेट्रोल-डीजल बनाने और बेचने वाली कंपनियों के मुनाफा का स्तर बढ़ जाता है.

 भारत में पेट्रोल-डीजल का आयात नहीं किया जाता. आयात महज कच्चे तेल का किया जाता है. लेकिन देश में पेट्रोल-डीजल की बिक्री के लिए पेट्रोल-डीजल के आयात रेट को चुना जाता है. यदि सरकार ने कच्चे तेल, जो कि पेट्रोल-डीजल तैयार करने में कच्चा माल है, की जगह सीधे पेट्रोल-डीजल का आयात किया होता, तो उस रेट पर पोर्ट डयूटी लगाते हुए केन्द्र और राज्य सरकारों के एक्साइज और वैट को जोड़कर देश में पेट्रोल-डीजल को बेचने का रेट तय किया जाता है. पेट्रोल-डीजल के रेट को तय करने के इस फॉर्मूला को  इंपोर्ट पैरिटी प्राइस कहा जाता है.

गौरतलब है कि इससे पहले 2002 तक देश में पेट्रोल-डीजल की कीमत निर्धारित करने के लिए कॉस्ट-प्लस फॉर्मूले का इस्तेमाल किया जाता था. इस फॉर्मूले के तहत केन्द्र सरकार लंबी अवधि में कच्चे तेल की खरीद पर खर्च निकालते हुए पेट्रोल-डीजल के रीटेल रेट को निर्धारित करती थी. हालांकि इस फॉर्मूले की सबसे बड़ी आलोचना यह थी कि पेट्रोल-डीजल की कीमत निर्धारित करने के काम में पारदर्शिता की कमी थी.

वहीं इपोर्ट पैरिटी प्राइस में पारदर्शिता अधिक है. लिहाजा, 2002 में पेट्रोल-डीजल की कीमत को डीरेगुलेट करते हुए बाजार के हवाले कर दिया गया. इसके बाद नई फॉर्मूले की समीक्षा 2006 में सी रंगाराजन कमेटी ने किया और इपोर्ट पैरिटी प्राइस को सही तरीका बताया.

इंपोर्ट पैरिटी प्राइस में यदि कच्चे तेल की कीमत में लगातार इजाफा हो रहा है तो जाहिर है पेट्रोल-डीजल की कीमतों में अधिक इजाफा हो रहा होगा. ऐसा इसलिए कि कच्चे माल में इजाफे से उत्पाद की कीमत में अधिक इजाफा होता है. सरकार पेट्रोल-डीजल पर अधिक टैक्स वसूल पाती है और तेल कंपनियां रॉ मटेरियल में इजाफे के बाद उत्पाद की कीमत में इजाफा करती हैं.

इसके अलावा देश की सरकारी और निजी क्षेत्र की तेल रिफाइनरी कंपनियां बड़ी मात्रा में निर्यात होने वाले पेट्रोल-डीजल पर बड़ी कमाई करते हैं. तेल कंपनियों की कमाई से भी केन्द्र सरकार के राजस्व में बड़ा इजाफा होता है.

आंकड़ों के मुताबिक पेट्रोल-डीजल रिफाइनिंग में रिलायंस इंडस्ट्रीज का टैक्स के बाद जहां 2015-16 में 11,242 करोड़ रुपये का मुनाफा हुआ वहीं 2017-18 के दौरान यह मुनाफा बढ़कर 21,346 करोड़ पर पहुंच गया. वहीं सरकारी रिफाइनरी कंपनी इंडियन ऑयल का इस दौरान टैक्स के बाद मुनाफा 22,426 करोड़ रुपये  से बढ़कर 33,612 करोड़ रुपये हो गया.

गौरतलब है कि यदि केन्द्र सरकार पेट्रोल-डीजल की कीमत का आंकलन करने के लिए पेट्रोल-डीजल की इंपोर्ट पैरिटी प्राइस की जगह कच्चे तेल से पेट्रोल-डीजल बनाने में लागत, टैक्स और मुनाफा को जोड़कर निर्धारित करे तो आम आदमी को पेट्रोल-डीजल के रास्ते ने वाली मंहगाई की मार से बचाया जा सकता है.

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