SUPREME COURT में केंद्र सरकार का तर्क-CRIMINALLY दोषी नेताओं पर ताउम्र चुनाव लड़ने का LIFETIME BAN सही नहीं
SUPREME COURT में केंद्र सरकार (Central Government) ने कहा है कि आपराधिक मामलों में दोषी ठहराए गए नेताओं पर ताउम्र चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाना सही नहीं होगा।

SUPREME COURT: उज्जवल प्रदेश, नई दिल्ली. केंद्र सरकार (Central Government) ने सुप्रीम कोर्ट (SUPREME COURT) में कहा (Argument) है कि आपराधिक मामलों में दोषी (Criminally Convicted Politicians) ठहराए गए नेताओं (Politicians) पर ताउम्र (Lifetime) चुनाव लड़ने (Contesting Elections) पर प्रतिबंध ( Ban) लगाना सही नहीं होगा।
केंद्र ने कहा कि मौजूदा छह साल का प्रतिबंध ही काफी है। आपराधिक मामलों में दोषी करार दिए गए नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की मांग करने वाली एक जनहित याचिका का विरोध करते हुए केंद्र सरकार ने शीर्ष न्यायालय से ऐसा कहा है। इस याचिका में दोषी ठहराए गए सांसदों और विधायकों समेत अन्य नेताओं पर चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी।
शीर्ष अदालत में दाखिल हलफनामे में केंद्र ने कहा कि याचिका में जो अनुरोध किया गया है वह विधान को फिर से लिखने या संसद को एक विशेष तरीके से कानून बनाने का निर्देश देने के समान है, जो न्यायिक समीक्षा संबंधी उच्चतम न्यायालय की शक्तियों से पूरी तरह से परे है। इसके साथ ही केंद्र ने कहा कि इस तरह की अयोग्यता तय करना केवल संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है। हलफनामे में कहा गया है, ‘‘यह सवाल कि आजीवन प्रतिबंध लगाना उपयुक्त होगा या नहीं, यह पूरी तरह से संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है।’’ इसमें कहा गया है कि दंड के क्रियान्वयन को एक उपयुक्त समय तक सीमित कर, रोकथाम सुनिश्चित की गई है और अनावश्यक कठोर कार्रवाई से बचा गया है। केंद्र ने कहा कि यह कानून का स्थापित सिद्धांत है कि दंड या तो समय या मात्रा के अनुसार निर्धारित होते हैं।
हलफनामे में कहा गया है, ‘‘यह दलील दी गई है कि याचिकाकर्ता द्वारा उठाए गए मुद्दों के व्यापक प्रभाव हैं और वे स्पष्ट रूप से संसद की विधायी नीति के अंतर्गत आते हैं तथा इस संबंध में न्यायिक समीक्षा की रूपरेखा में उपयुक्त परिवर्तन करना पड़ेगा।’’ अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने शीर्ष अदालत में याचिका दायर कर दोषी करार दिये गए नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध लगाने के अलावा देश में सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामलों के त्वरित निस्तारण का अनुरोध किया है।
अपने हलफनामे में, केंद्र ने कहा कि शीर्ष अदालत ने निरंतर यह कहा है कि एक विकल्प या दूसरे पर विधायी विकल्प की प्रभावकारिता को लेकर अदालतों में सवाल नहीं उठाया जा सकता। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 (1) के तहत, अयोग्यता की अवधि दोषसिद्धि की तारीख से छह साल या कारावास के मामले में रिहाई की तारीख से छह साल तक है।
हलफनामे में कहा गया है कि उक्त धाराओं के तहत घोषित की जाने वाली अयोग्यताएं संसदीय नीति का विषय हैं और आजीवन प्रतिबंध लगाना उपयुक्त नहीं होगा। केंद्र ने कहा कि न्यायिक समीक्षा के मामले में, न्यायालय प्रावधानों को असंवैधानिक घोषित कर सकता है, हालांकि, याचिकाकर्ता द्वारा मांगी गई राहत में अधिनियम की धारा 8 की सभी उप-धाराओं में ‘‘छह वर्ष’’ के प्रावधान को ‘‘आजीवन’’ पढ़े जाने का अनुरोध किया गया है। इसने कहा कि आजीवन अयोग्यता, प्रावधानों के तहत लगाई जा सकती है और ऐसा विवेकाधिकार ‘‘निश्चित रूप से संसद के अधिकार क्षेत्र में’’ है। केंद्र ने कहा कि याचिका अयोग्यता के आधार और अयोग्यता के प्रभावों के बीच महत्वपूर्ण अंतर स्पष्ट करने में विफल रही है। हलफनामे में कहा गया है कि याचिकाकर्ता का संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 का उल्लेख करना पूरी तरह से गलत है। संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 संसद, विधानसभा या विधानपरिषद की सदस्यता के लिए अयोग्यता से संबंधित हैं।
केंद्र ने कहा कि अनुच्छेद 102 और 191 के खंड (ई) संसद को अयोग्यता से संबंधित कानून बनाने की शक्ति प्रदान करते हैं और इसी शक्ति का प्रयोग करते हुए 1951 का (जन प्रतिनिधित्व) अधिनियम बनाया गया था। इसने कहा कि संविधान ने संसद को अयोग्यता से संबंधित ऐसे अन्य कानून बनाने का अधिकार दिया है, जिसे बनाना वह उचित समझता हो। केंद्र ने कहा, ‘‘संसद के पास अयोग्यता के आधार और अयोग्यता की अवधि, दोनों निर्धारित करने की शक्ति है।’’न्यायालय ने 10 फरवरी को, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 और 9 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर केंद्र और निर्वाचन आयोग से जवाब मांगा था।