Corona 2021: बीते साल उस अप्रैल की रूह कंपाने वाली याद…

कोविड जैसी सामाजिक दूरी पर विवश करने वाली अजीब महामारी (Corona 2021) 2020 में भी आई थी, जिसकी दुनिया को आदत न थी। क्या करें, कैसे करें की ऊपापोह के बीच फौरी तौर पर बचने के जो उपाय किए गए, उनमें देश भर में सख्त लॉकडाउन शामिल था। भोली आशा थी कि कुछ दिन अगर सब बंद कर दिया जाए तो सब ठीक हो जाएगा।

बीत रहा अप्रैल का यह महीना इस बार भले गर्म हवा के थपेड़ों से झुलस रहा हो और कोविड की चौथी लहर की सुगबुगाहट दे रहा हो, लेकिन साल भर पहले इसी अप्रैल में Corona 2021 के दो भयंकर घातक वेरिएंट्स डेल्टा (Variants Delta) और कप्पा (Variants Kappa) ने पूरे भारत को जिस तरह दहलाया, कंपकंपाया और रूलाया, वैसा शायद ‘भूतो न भविष्यति’ था। कोविड (covid) के रूप में मौत का भयावह साया समूचे देश पर मंडराते हुए क्रूर अट्टहास कर रहा था। ‘center for global development ‘ ने इसे 1947 में हुए देश के विभाजन के बाद दूसरी सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी करार दिया।

2021 के मार्च के दूसरे पखवाड़े में शुरू हुई, यह भयानक त्रासदी मई के पहले पखवाड़े तक समूचे भारत को दहलाती रही। एक समय वो भी आया जब अपनों की मौतों की सूचनाओं की बमबारी ने परिजनो की आंखों का पानी भी सुखा दिया था। सामूहिक चेतना भी सुन्न सी हो गई थी। मोबाइल फोन उठाने में हाथ कांपने लगे थे कि न जाने किसके जाने की खबर स्तब्ध कर जाए। यह स्वाभाविक ही है कि इस साल मार्च से लेकर मई तक उनमें से कितनों की ही पहली बरसी का सिलसिला चल रहा है। एक अदद सहज सांस के लिए जूझते चेहरो की वो तस्वीरें अभी भी अंतर्मन को कचोटती हैं। वो भीषण स्मृतियां दिमाग में जब कौंधती हैं तो आज भी मन भीतर से हिल जाता है।

कोविड जैसी सामाजिक दूरी पर विवश करने वाली अजीब महामारी 2020 में भी आई थी, जिसकी दुनिया को आदत न थी। क्या करें, कैसे करें की ऊपापोह के बीच फौरी तौर पर बचने के जो उपाय किए गए, उनमें देश भर में सख्त लॉकडाउन शामिल था। भोली आशा थी कि कुछ दिन अगर सब बंद कर दिया जाए तो सब ठीक हो जाएगा। जिंदगी फिर अपनी रफ्तार से चल पड़ेगी। वो भयंकर लाॅकडाउन बहुत से लोगों की जिंदगी का लाॅकडाउन साबित हुआ तो कुछ उसे रोमांटिक नजर से देखते रहे।

कोरोना का अल्फा वेरिएंट (Alpha variant of Corona)

उस पहली लहर में कोविड वायरस का वो अल्फा वेरिएंट था, जो फैलता तेजी से था, लेकिन अपने भावी वशंज डेल्टा वेरिएंट की तुलना में कम बेरहम था। नई बीमारी का इलाज डाॅक्टर, पुलिस, व्यवस्था, लोग और सरकार अपने अपने ढंग से कर रहे थे। जिंदगी मास्क, सोशल डिस्टेंसिंग, पीपीई किट, क्वारंटाइन जैसे नए शब्दों से रूबरू हो रही थी। जो अल्फा वेरिएंट का हमला भी न सह सके, जो असमय ही हमसे विदा हो गए। सितंबर तक आते आते यह लहर कमजोर पड़ी तो सब मान बैठे कि वो काल का फेरा था, हो चुका।

कोरोना का अल्फा वेरिएंट
कोरोना का अल्फा वेरिएंट

लेकिन अगले ही साल मार्च 2021 में कोविड ने जतला दिया कि उसकी तासीर रक्तबीज राक्षस की तरह है। जो मरकर भी नहीं मरता। नए नए रूप धरकर आता है। नए नामों से आता है, आता रहेगा। मानो देश दुनिया में कोविड 19 की वैक्सीन की खोज ने कोविड को और बिफरा दिया। वह म्यूटेंट होकर मार्च 2021 में फिर लौटा। ज्यादा घातक और मारक बन कर लौटा।

आंकड़े बताते हैं कि डेल्टा कोविड की मार इतनी जबर्दस्त थी कि अप्रैल और मई के दरम्यान उसने भारत में 1 लाख 66 हजार 632 लोगों ने कोविड से समुचित इलाज के अभाव में अपनी जानें गंवा दीं। यानी औसतन हर 10 में से 4 मरीज कोविड के कारण दम तोड़ रहे थे। ये वायरस इतना भयानक था कि संक्रमित व्यक्ति के सीधे फेंफड़ों पर हमला कर उसकी सांस प्रणाली को ही खत्म कर देता था। जब सांसे ही नहीं रहती तो मनुष्य के रूप में बचता क्या है।

ऑक्सीजन की दरकार (need oxygen)

वो ऐसा पहला अप्रैल था, जब देश अपने ही प्राण बचाने की जद्दोजहद में जुटा था। पहली दफा पता चला कि देश में मेडिकल ऑक्सीजन का भयंकर टोटा है। रसोई गैस सिलेंडर के लिए भटकने वाले हाथ एक अदद आॅक्सीजन सिलेंडर के लिए दर-दर भटक रहे थे। सरकार ने औद्योगिक ऑक्सीजन पर पांबदी लगा कर केवल मेडिकल ऑक्सीजन के उत्पादन का आदेश दिया। लेकिन ढोने के लिए क्रायोजेनिक टैंकरों का अभाव था। प्राणवायु की राशनिंग देश ने पहली बार भुगती। ऑक्सीजन गैस तक की चोरी होने लगी। टैंकर लूटे जाने लगे। दुनिया हमारी ध्वस्त होती स्वास्थ्य प्रणाली को हैरत से देख रही थी। हम दुनिया से ऑक्सीजन और वेंटीलेटर मांग रहे थे।

ऑक्सीजन की दरकार
ऑक्सीजन की दरकार

उधर कोविड डैशबोर्ड पर आंकड़ा दिनो दिन और डरावना होता जा रहा था। 30 अप्रैल 2021 के दिन पूरे देश में 4 लाख लोग संक्रमित हुए और 3500 मौतें सिर्फ कोरोना के कारण हुईं। यह शायद पहला मौका था, जब देश में श्मशान घाट अपूरे पड़ने लगे, कब्रिस्तानों में कब्र खोदने वालों का टोटा पड़ गया। कई श्मशान घाटों में एक साथ जलती सैंकड़ों चिताओं की आंच और बेतरह उठते धुएं में समूचे देश का आर्तनाद महसूस किया जा सकता था। हालांकि लोग लड़ रहे थे, लेकिन देश त्राहि त्राहि कर रहा था। मौत का ये ज्वार कब उतरेगा, किसी की समझ नहीं आ रहा था।

कोरोना का हाहाकार (Corona’s outcry)

कोविड की उस दूसरी लहर ने हकीकत में कितनो को लीला, इसका सही आंकड़ा शायद ही कभी सामने आए। क्योंकि अंत्येष्टि स्थलों पर मौतों की गिनती लगभग रोक दी गई थी। मृत्यु को दर्ज करने वाली रजिस्टर सच बोल सकते थे, इसलिए उन्हें भी बंद कर दिया गया था। फिर भी माना जाता है कि जो आंकड़े बताए गए, संख्या उनसे सात आठ गुना ज्यादा थी। मौतों के सरकारी आंकड़ों को कुछ विशेषज्ञों ने तो ‘आंकड़ों के हत्याकांड’ की संज्ञा दी। एक ऐसा युद्ध, जो अदृश्य शत्रु के साथ लड़ा जा रहा था।

कोरोना का हाहाकार
कोरोना का हाहाकार

दुख और पीड़ा का यह तूफान इतना व्यापक और गहरा था कि समझ नहीं आ रहा था कि कौन किसके आंसू पोंछें। लोग अपनो की विधिवत अंत्येष्टि भी नहीं कर पा रहे थे। विदा होते स्वजन की आखिरी झलक भी दूभर थी। मनुष्य का वजूद महज एक पीपीई किट में समा गया था। सिर्फ भोपाल शहर की बात करें तो यह 1984 के जहरीली गैस लीक कांड में हुई हजारों मौतों के बाद आई दूसरी भयंकर आपदा थी। हालांकि जिस रात वो सब घटा था, वो एक सर्द रात थी।

यूं ग्रिगोरियन कैलेंडर के चौथे माह अप्रैल का महीना भारतीय संदर्भ में बैसाखी की मस्ती लिए होता है। सर्दी विदा हो चुकी होती है और गर्मियां अपना रंग दिखाने लगती है। फसलों के कटने और ढीले कपड़े पहनने का मौसम आ चुका होता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अप्रैल माह की शुरूआत 1 अप्रैल को ‘फूल्स डे’ (मूर्ख दिवस) से होती है और समापन 30 अप्रैल को ‘पशु चिकित्सा दिवस’ से होता है। इस बीच और भी कई विशेष दिन और धार्मिक त्यौहार भी पड़ते हैं। लेकिन पिछले साल के अप्रैल ने अपने पीछे सिर्फ दुख और दहशत भरी दास्तां छोड़ी है।

यूं तो हर प्राणी के लिए मृत्यु अटल है। लेकिन वह इस क्रूर और सामाजिकता पर ही घनाघात करने वाले तेवर से आएगी, यह तो शायद ही किसी ने नहीं सोचा होगा। ऐसी लड़ाई कि जिसमें आप लगभग निहत्थे ही हों। ऐसी निर्दयता कि ईश्वर ने भी पीडि़त की प्रार्थना सुनने के बजाए अपने कान बंद कर लिए हों। विश्वास की हर सांस मास्क के पीछे छुप गई हो। गमी वाले घर में मातमपुरसी का साहस भी जवाब दे गया हो। हर कोई इस मानसिक आतंक में जी रहा हो कि मैं बचूंगा या नहीं..।

कौन क्यों जिंदा रहेगा और कौन चल देगा जैसे यक्ष प्रश्न कि जिसका उत्तर धर्मराज युधिष्ठिर के पास भी शायद ही हो। श्मशान घाटों में मंडी की तरह वारिसी और लावारिस लाशों की लंबी कतारें हों। शवों को जलाने के लिए विश्रामघाटों का ताबड़तोड़ विस्तार करना पड़ा हो। अस्पतालों की हालत मुसाफिरखाने से भी ज्यादा बदतर हो। दवाइयों और इंजेक्शनों की ब्लैक की सरेआम कालाबाजारी और चोरी हो। जिंदा रहने की आस में मनमर्जी से ली और दी गई दवाइयों का घातक दुष्परिणाम हो। जिसका असर कई लोग आज तक भुगत रहे हों..वो अप्रैल जो अब इतिहास में काले अक्षरों में दर्ज हो गया है…ईश्वर करे फिर न आए…।

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Sourabh Mathur

सौरभ माथुर एक अनुभवी न्यूज़ एडिटर हैं, जिनके पास 13 वर्षों का एडिटिंग अनुभव है। उन्होंने कई मीडिया हॉउस के संपादकीय टीमों के साथ काम किया है। सौरभ ने समाचार लेखन, संपादन और तथ्यात्मक विश्लेषण में विशेषज्ञता हासिल की, हमेशा सटीक और विश्वसनीय जानकारी पाठकों तक पहुंचाना उनका लक्ष्य रहा है। वह डिजिटल, प्रिंट और ब्रॉडकास्ट मीडिया में भी अच्छा अनुभव रखतें हैं और पत्रकारिता के बदलते रुझानों को समझते हुए अपने काम को लगातार बेहतर बनाने की कोशिश करते रहतें हैं।

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