रामचरित मानस की चौपाईयां अर्थ सहित पढ़ें रोज, आज चौहदवां दिन

Ramcharit Manas: भक्तशिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित 'श्रीरामचरितमानस' चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रही हैं।

Ramcharit Manas: पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 7 चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रहा हैं। रोजाना गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 7 चौपाई लेकर आते रहेंगे। इसलिए उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) एक नई पहल कर रही हैं जिसके माध्यम से आप सभी को संपूर्ण ‘श्रीरामचरितमानस’ पढ़ने का लाभ मिलें।

श्रीरामचरित मानस (Shri Ramcharit Manas) में जिनके पाठ से मनुष्य जीवन में आने वाली अनेक समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है। वैसे तो संपूर्ण रामायण का पाठ करने से हर तरह की मनोकामनाओं की पूर्ति हो जाती है, आप चाहे तो हमारे साथ जुड़कर रोजाना पाठ करें और संपूर्ण रामायण का पुण्य फल भी कमाएं। आज हम आपके लिए लेकर आए हैं गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ रामायण के प्रथम सोपान बालकांड के दोहा और चौपाई और भावार्थ

आज श्रीरामचरित मानस की 7 चौपाईयां | Today 7 Chaupais of Ramcharit Manas

सोरठा
बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥16॥

भावार्थ: इसलिए मैं अवध के राजा महाराज दशरथजी की वन्दना करता हूँ, जिनका सच्चा प्रेम श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में था। जिन्होंने दीनदयालु श्रीरामचन्द्रजी के बिद्युड़ते श्री अयने । प्१३००रीर को तृण के समान त्याग दिया।।16।।

चौपाई
प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥
जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥1॥

भावार्थ: फिर मैं परिवार सहित राजा जनकजी को प्रणाम करता हूँ, जिनका श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में गूढ़ स्नेह रहा। परन्तु उस प्रेमयोग को भोग में उन्होंने ऐसे छिपा रखा था कि वह श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन होते ही प्रकट हो गया।

प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥
राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥2॥

भावार्थ: अब मैं पहले श्रीभरतजी के चरणों की वन्दना करता हूँ, जिनका नेम और व्रत वर्णनातीत है, क्योंकि उनका मन श्रीरामचन्द्रजी के चरण-कमलों में उस लोभी भौरे के समान लगा रहता था, जो पुष्प को कभी भी छोड़ना नहीं चाहता।

बंदउँ लछिमन पद जल जाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता॥
रघुपति कीरति बिमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका॥3॥

भावार्थ: फिर मैं लक्ष्मणजी के कमलवत् चरणों की वन्दना करता हूँ, जो बड़े शीतल स्वभाववाले, सुन्दर और भक्तों के सुखदाता हैं और जिनका यश श्रीरामचन्द्रजी की उज्ज्वल कीर्तिरूपी पताका के लिए दण्ड के समान हुआ।

सेष सहस्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥
सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिन्धु सौमित्रि गुनाकर॥4॥

भावार्थ: जिन शेषजी ने पृथ्वी का भय मिटाने और संसार का कल्याण करने के लिये ही अवतार लिया था, वे कृपासागर और गुणों के घर श्रीसुमित्रानन्दन मुझ पर सर्वदा सानुकूल रहें।

रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी॥
महाबीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥5॥

भावार्थ: अब मैं उन शत्रुघ्नजी के चरण कमलों में सिर झुका रहा हूँ, जो बड़े शूरवीर, सुन्दर स्वभाव वाले और भरत के अनुगामी हैं। फिर मैं महावीर श्रीहनुमान्जी से प्रार्थना कर रहा हूँ, जिनके यश का वर्णन श्रीरामचन्द्रजी ने स्वयं अपने श्रीमुख से किया है।

सोरठा
प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥17॥

भावार्थ: मैं उन पवनकुमार श्रीहनुमान्जी की वन्दना करता हूँ, जो दुष्टजनरूपी वन को भस्म करने के लिए अग्नि के समान और ज्ञान के भण्डार हैं तथा जिनके हृदयरूपी मन्दिर में धनुष-बाण धारणकर निवास करते हैं।।17।।

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Deepak Vishwakarma

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