रामचरित मानस की चौपाईयां अर्थ सहित पढ़ें रोज, आज उनतीसवां दिन
Ramcharit Manas: भक्तशिरोमणि परमपूज्य गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित 'श्रीरामचरितमानस' चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रही हैं।

Ramcharit Manas: भक्तशिरोमणि परमपूज्य गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 10 चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रहा हैं। हम रोजाना गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 10 चौपाई लेकर आ रहे हैं । उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) एक नई पहल कर रही हैं जिसके माध्यम से आप सभी को संपूर्ण ‘श्रीरामचरितमानस’ पढ़ने का लाभ मिलें।
श्रीरामचरित मानस (Shri Ramcharit Manas) में जिनके पाठ से मनुष्य जीवन में आने वाली अनेक समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है। वैसे तो संपूर्ण रामायण का पाठ करने से हर तरह की मनोकामनाओं की पूर्ति हो जाती है, आप चाहे तो हमारे साथ जुड़कर रोजाना पाठ करें और संपूर्ण रामायण का पुण्य फल भी कमाएं। आज हम आपके लिए लेकर आए हैं गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ रामायण के प्रथम सोपान बालकांड के दोहा और चौपाई और भावार्थ।
आज श्रीरामचरित मानस की 10 चौपाईयां | Today 10 Chaupais of Ramcharit Manas
दोहा
श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।
संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल॥39॥
भावार्थ: श्रोता तीन प्रकार के होते हैं (मुक्त, मुमुक्षु, विषयी)। इन श्रोताओं के समाज ही इस नदी के दोनों किनारों पर स्थित ग्राम, पुर और नगर हैं और सकल सुमङ्गलों की जड़ सन्त-महात्माओं की सभा ही इस नदी के किनारे पर मानो अयोध्यापुरी है।। ३९।।
चौपाई
रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥
सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥1॥
भावार्थ: जहाँ श्रीरामचन्द्रजी की भक्तिरूपी गङ्गा इस सुन्दर कीर्तिरूपी सुहावन सरयू नदीं में जाकर मिल गयी है और छोटे भाई लक्ष्मण सहित श्रीरामचन्द्रजी के संग्राम का जो पवित्र यशरूप अत्यन्त सुन्दर सोन महानद है, वह उसमें जाकर मिल गया है।
जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥
त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरूप सिंधु समुहानी॥2॥
भावार्थ: इस प्रकार सरयू और महानदी दोनों के बीच में जो श्रीगंगाजी की धारा का मिलाप है वह ऐसी शोभा देती है, मानो ज्ञान और वैराग्यरूपी नदियों के बीच में भक्तिरूपी गङ्गा की धारा शोभायमान हुआ करती है। इस प्रकार यह तीन धारों वाली (नदी) त्रिमुहानी श्रीरामचन्द्रजी के स्वरूप में जाकर मिल गयी है।
मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही॥
बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥3॥
भावार्थ: इस प्रकार इस श्रीरामचरितमानसरूपी मानसरोवर से प्रकट होनेवाली सरयू नदी श्रीगङ्गाजी में जाकर मिल गयी है, जो सुननेवालों के अन्तःकरण को पवित्र कर देती है। इसमें श्रीरामचन्द्रजी की कथा के अतिरिक्त जो-जो अन्य प्रसंग बीच-बीच में आये हैं, वे मानो इस नदी के दोनों तट के वन और बाग के रूप में शोभायमान हैं।
उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती॥
रघुबर जनम अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई॥4॥
भावार्थ: रामचरितमानस में श्रीमहादेवजी और श्रीपार्वतीजी के विवाह के बरातियों का वर्णन है, वही मानो असंख्य और अनेक भाँति के भयंकर जलचर जीव हैं। श्रीरामचन्द्रजी के जन्म की जो आनन्द बधाई है, वही मानो इस नदी के भँवर की तरंग है जो सहज ही में मन को हर लेती है।
दोहा
बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग।
नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारि बिहंग॥40॥
भावार्थ: (इस रामचरितमानस में) चारों भाइयों के जो बाल-चरित्र हैं, वही मानो इस नदी में अनेक रंगों के अनेक कमल के फूल हैं और राजा दशरथ तथा रानी कौसल्या के जो पुण्य हैं, वही भ्रमर के समान हैं और कुटुम्ब के लोगों के जो पुण्य हैं, वही इस जल के पक्षी हैं।।40।।
चौपाई
सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥
नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका॥1॥
भावार्थ: जो श्रीसीतारामजी के स्वयंवर की कथा है, वही मानो इस नदी की सुन्दरता की शोभा है और कुशल प्रश्नकर्ताओं के जो अनेक प्रश्न हैं, वही मानो इस नदी की नौका है और जो उन सबका सावधानीपूर्वक उत्तर दिया गया है, वह उत्तर ही कुशल केवट है।
सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई॥
घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी॥2॥
भावार्थ: जो इसमें परस्पर एक-दूसरे के वार्तालाप हैं, वही मानो इस नदी तट के यात्रियों का सुन्दर समाज है और इसमें जो श्रीपरशुराम का भारी रोष है, वही इस नदी की विकराल, बड़ी तेज धारा है और श्रीरामचन्द्रजी की जो मधुर वाणी है, वही मानो उस प्रवाह को रोकने के लिए अच्छे बँधे घाट हैं।
सानुज राम बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू॥
कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥3॥
भावार्थ: भाइयों सहित जो श्रीरामचन्द्रजी के विवाह का उत्सव है, वही मानो इस नदी की सर्व- शोभायमान उमंग है। जो इस कथा को कहते-सुनते हैं, मानो वे ही पुण्यात्माजन आनन्द-चित्त से इस नदी में स्नान करते हैं।
राम तिलक हित मंगल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा।
काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी॥4॥
भावार्थ: श्रीरामचन्द्रजी के राज्य तिलक के लिए जो तैयारी हुई है और जो समुदाय एकत्रित हुआ है, वही मानो पर्व का मुहूर्त जानकर यात्रियों का समाज जुटा है और जो इसमें कैकेयी की कुमति है, वही काई के रूप में है कि जिसके फलस्वरूप बड़ी भारी कठिन विपत्ति आयी है।