रामचरित मानस की चौपाईयां अर्थ सहित पढ़ें रोज, आज इकतीसवां दिन
Ramcharit Manas: परमारध्य गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित 'श्रीरामचरितमानस' चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रही हैं।

Ramcharit Manas: परमारध्य गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 11 चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रहा हैं। हम रोजाना गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 11 चौपाई लेकर आ रहे हैं। वही उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) एक नई पहल कर रही हैं जिसके माध्यम से आप सभी को संपूर्ण ‘श्रीरामचरितमानस’ पढ़ने का लाभ मिलें।
श्रीरामचरित मानस (Shri Ramcharit Manas) में जिनके पाठ से मनुष्य जीवन में आने वाली अनेक समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है। वैसे तो संपूर्ण रामायण का पाठ करने से हर तरह की मनोकामनाओं की पूर्ति हो जाती है, आप चाहे तो हमारे साथ जुड़कर रोजाना पाठ करें और संपूर्ण रामायण का पुण्य फल भी कमाएं। आज हम आपके लिए लेकर आए हैं गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ रामायण के प्रथम सोपान बालकांड के दोहा और चौपाई और भावार्थ।
आज श्रीरामचरित मानस की 11 चौपाईयां | Today 11 Chaupais of Ramcharit Manas
दोहा
मति अनुहारि सुबारि गुन गन गनि मन अन्हवाइ।
सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ॥43 क॥
भावार्थ: श्रीतुलसीदासजी कहते हैं, कि मैं अपनी बुद्धि के अनुसार इन गुणों के समूहरूप श्रेष्ठ सुन्दर जल में अपने मन को स्नान कराकर और श्रीमहादेवजी तथा श्रीपार्वतीजी का स्मरण करके यह सुहावनी कथा कहता हूँ।।43 (क) ।।
अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद।
कहउँ जुगल मुनिबर्य कर मिलन सुभग संबाद ॥43 ख॥
भावार्थ: जब मैं श्रीरामचन्द्रजी के चरण कमलों को अपने हृदय में धारणकर याज्ञवल्क्य मुनि को पाकर भरद्वाच मुनि ने जैसे प्रश्न किया था, पहले उसी मुख्य संवाद को कारण सहित समझाकर कहता हूँ।।43 (ख)!!
चौपाई
भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥1॥
भावार्थ: श्रीभरद्वाज मुनि प्रयाग में वास करते थे, जिनका श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में अत्यन्त गहग प्रेम था। वे एक उच्चकोटि के तपस्वी, शम, दम तथा दया की खानि और परमार्थ मार्ग ‘भगवत चर्चा’ में बहुत ही प्रवीण थे।
माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥2॥
भावार्थ: जब माघ महीने में मकर संक्रान्ति लगती थी तब सब लोग तीरथपति प्रयाग में स्नान करने आया करते थे (जैसे आज भी जाते हैं)। क्या देवता, क्या राक्षस, क्या किन्नर और क्या मनुष्य सभी आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते थे और करते हैं।
पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥3॥
भावार्थ: वहाँ वेणीमाधव के चरण कमलों की पूजाकर प्रसन्नता से अक्षयवट की पूजा करते हैं। वहीं भरद्वाज मुनि का अत्यन्त पवित्र आश्रम है, जो बहुत ही सुन्दर और मुनियों के मन को भी अच्छा लगता है।
तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥4॥
भावार्थ: तब वहाँ जितने ऋषि-मुनि तीर्थराज प्रयाग में स्नान करने जाया करते थे, उन सबका वहीं (आश्रम में) समाज लगता था। तब जब सब लोग उत्साहपूर्वक प्रातःकाल स्नान कर लेते थे, तत्पश्चात् एक दूसरे से (परस्पर) भगवान् श्रीहरि के गुणों की चर्चा अर्थात् गुणानुवाद करते थे।
दोहा
ब्रह्म निरूपन धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।
ककहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग॥44॥
भावार्थ: (उस चर्चा में) वे ब्रह्म का निरूपण करते थे और धर्म-विधि का नियम बनाकर सब तत्त्वों का पृथक् पृथक् विभाग करते थे और ज्ञान-वैराग्यसहित भगवान् की भक्ति का कथन करते थे।।44।।
चौपाई
एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥
प्रति संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥1॥
भावार्थ: इस प्रकार सारे मकर भर स्नान करके फिर सब लोग (ऋषि-मुनि) अपने-अपने आश्रमों को चले जाते थे। प्रतिवर्ष ऐसा ही आनन्द हुआ करता था कि, सब लोग आते थे और फिर मकर-स्नान करके समस्त मुनीश्वर अपने-अपने स्थान को प्रस्थान किया करते थे।
एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥
जागबलिक मुनि परम बिबेकी। भरद्वाज राखे पद टेकी॥2॥
भावार्थ: एक बार जब मकर भर स्नान करके सब मुनीश्वर अपने-अपने आश्रमों को चले गये। तब उन में याज्ञवल्क्य मुनि जो परम ज्ञानी थे, उनका पाँव पकड़ भरद्वाजजी ने विनयपूर्वक उन्हें रोका।
सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे॥
करि पूजा मुनि सुजसु बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी॥3॥
भावार्थ: फिर आदर सहित उनके चरणों को धोकर अत्यन्त पवित्र आसन पर बिठाकर उनकी पूजा की। और उनकी (मुनीश्वर की) प्रशंसाकर भरद्वाजजी अत्यन्त पवित्र और कोमल वाणी में बोले-
नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्त्व सबु तोरें॥
कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौं न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥4॥
भावार्थ: हे नाथ! मेरे हृदय में एक बड़ा ही संशय उत्पन्न हो गया है, वेदों का सम्पूर्ण तत्त्व आप के हाथ में है। उस संशय कहने में मुझे भय और लज्जा दोनों ही लग रही है, किन्तु यदि नहीं कहता हूँ तो बड़ा अकाज होता है।