रामचरित मानस की चौपाईयां अर्थ सहित पढ़ें रोज, आज तेत्तीसवां दिन हैं

Ramcharit Manas: रामभक्त गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित 'श्रीरामचरितमानस' चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रही हैं।

Ramcharit Manas: रामभक्त गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 11 चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रहा हैं।  हम रोजाना गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 11 चौपाई आपके लिए लेकर आ रहे हैं।वही  उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) एक नई पहल कर रही हैं जिसके माध्यम से आप सभी को संपूर्ण ‘श्रीरामचरितमानस’ पढ़ने का लाभ मिलें।

श्रीरामचरित मानस (Shri Ramcharit Manas) में जिनके पाठ से मनुष्य जीवन में आने वाली अनेक समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है। वैसे तो संपूर्ण रामायण का पाठ करने से हर तरह की मनोकामनाओं की पूर्ति हो जाती है, आप चाहे तो हमारे साथ जुड़कर रोजाना पाठ करें और संपूर्ण रामायण का पुण्य फल भी कमाएं। आज हम आपके लिए लेकर आए हैं गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ रामायण के प्रथम सोपान बालकांड के दोहा और चौपाई और भावार्थ

आज श्रीरामचरित मानस की 11 चौपाईयां | Today 11 Chaupais of Ramcharit Manas

दोहा
कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47॥

भावार्थ: अब मैं वही ‘शिव-पार्वती-संवाद’ अपनी बुद्धि के अनुसार कहता हूँ, वह जिस समय और जिस कारण से हुआ। हे मुनि ! सुनो, उसके सुनने से तुम्हारा विषाद नष्ट हो जायगा।।47।।

चौपाई
एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥
संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥1॥

भावार्थ: (सुनो) एक समय त्रेतायुग में जब श्रीमहादेवजी कुम्भज ऋषि के पास गये थे। (और) साथ में जगत्-माता भवानी सतीजी भी थीं, तब ऋषि ने उनको सम्पूर्ण लोकों का ईश्वर जानकर उनकी पूजा की।

रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥2॥

भावार्थ: (उस अवसर पर) मुनियों में श्रेष्ठ अगस्त्यजी ने इसी राम-कथा को कहा था, जिसे श्रीमहादेवजी अत्यन्त सुख मानकर सुने थे। इसी अवसर पर मुनिदेव के पूछने पर जब श्रीमहादेवजी ने समझ लिया कि मुनिजी इसके पात्र हैं, तब उन्होंने अत्यन्त सुहावनी भगवद्भक्ति का वर्णन किया था।

कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी।।3।।

भावार्थ: इस प्रकार परस्पर श्रीरामचन्द्रजी का गुणानुवाद करते हुए जब वहाँ शंकरजी को कुछ (अधिक) दिन व्यतीत हो गया। तब (वे) मुनि (अगस्त्य जी से विदा माँगकर साथ में दक्ष- पुत्री श्रीसतीजी को लिए अपने घर (कैलास पर्वत) को को चले।

तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥4॥

भावार्थ: उस समय पृथ्वी का भार हरण करने के लिए भगवान् रघुकुल में अवतार ले चुके थे और पिता के वचन को मानकर राज्य से उदासीन हो वे अविनाशी (जिनका कभी नाश नहीं होता) दण्डक वन में विचरण कर रहे थे।

दोहा
हृदयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।
गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥48 क॥

भावार्थ: (इधर) शंकरजी अपने मन में यह विचार करते हुए मार्ग में चले जा रहे थे कि किस प्रकार (प्रभु) दर्शन होगा, भगवान् गुप्तरूप से प्रकट हुए हैं, मेरे वहाँ जाने से यह बात सब लोग भलीभाँति जान जायेंगे ।।48 (क) ।।

सोरठा
संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ।
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥48 ख॥

भावार्थ: श्रीशंकरजी के हृदय में तो (ऐसा) अधिक क्षोभ (तर्क-विर्तक) हो रहा था और इधर सतीजी इसका कुछ भेद नहीं जानती थी। तुलसीदासजी कहते हैं कि भगवान् के दर्शनों के लिये शंकरजी के लालची नेत्र मानते भी नहीं थे और वे भेद न खुल जाय इस बात से डर भी रहे थे।।48 (ख)।।

चौपाई
रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥1॥

भावार्थ: इधर शंकरजी अपने मन में यह विचारते हुए जा रहे थे कि, रावण ने तो ब्रह्माजी से यह वरदान माँग ही लिया है कि मैं मनुष्य के हाथ से मारा जाऊँ तो भगवान् श्रीब्रह्माजी के वचनों को पूर्ण करना चाहते हैं। ऐसी अवस्था में यदि उनका दर्शन करने नहीं जाता हूँ तो मन में पछतावा ही लगा रहेगा, ऐसा विचार करते थे, परन्तु किसी प्रकार भी बात बनती न थी अर्थात् किसी निश्चय पर न पहुँचते थे; क्योंकि ‘गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु, गएँ जान सबु कोइ’।

ऐहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेही समय जाइ दससीसा॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरउ सोइ कपट कुरंगा॥2॥

भावार्थ: इस प्रकार महादेवजी चिन्ता कर ही रहे थे कि उसी समय रावण ने जाकर नीच मारीच को अपना साथी बनाया, वह तुरन्त कपट मृग हो गया।

करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
मृग बधि बंधु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥3॥

भावार्थ: उस मूढ़ ने छलपूर्वक श्रीजानकीजी को तो हरण कर लिया परन्तु उसे यह नहीं ज्ञात हुआ कि प्रभु श्रीरामचन्द्रजी का प्रभाव कैसा है? श्रीरामचन्द्रजी मृग के पीछे गये और थोड़ी देर में ही उसे मारकर भाई लक्ष्मण-जी के सहित लौट आये, देखा तो आश्रम शून्य है, तब आश्रम को देखकर उनके नेत्रों में जल भर आया।

बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें॥4॥

भावार्थ: तब विरही मनुष्य के समान दोनों भाई श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणजी श्रीसीताजी को जंगल में खोजने लगे। जिसको मिलाप और विछोह का दुःख कभी नहीं हो सकता था, वह भी प्रकट रूप में विरही से दिखाई दिये।

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Deepak Vishwakarma

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