रामचरित मानस की चौपाईयां अर्थ सहित पढ़ें रोज, आज छत्तीसवां दिन
Ramcharit Manas: गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित 'श्रीरामचरितमानस' चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रही हैं।

Ramcharit Manas: रामाधीन परमपूज्य गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 10 चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रहा हैं। हम रोजाना गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 10 चौपाई लेकर आ रहे हैं । वही उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) एक नई पहल कर रही हैं जिसके माध्यम से आप सभी को संपूर्ण ‘श्रीरामचरितमानस’ पढ़ने का लाभ मिलें।
श्रीरामचरित मानस (Shri Ramcharit Manas) में जिनके पाठ से मनुष्य जीवन में आने वाली अनेक समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है। वैसे तो संपूर्ण रामायण का पाठ करने से हर तरह की मनोकामनाओं की पूर्ति हो जाती है, आप चाहे तो हमारे साथ जुड़कर रोजाना पाठ करें और संपूर्ण रामायण का पुण्य फल भी कमाएं। आज हम आपके लिए लेकर आए हैं गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ रामायण के प्रथम सोपान बालकांड के दोहा और चौपाई और भावार्थ।
आज श्रीरामचरित मानस की 10 चौपाईयां | Today 10 Chaupais of Ramcharit Manas
दोहा
राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु ।
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु ॥ 53॥
भावार्थ: तब श्रीरामजी के ऐसे मीठे किंतु गूढ़ वचन को सुनकर (श्रीसती को) अत्यन्त संकोच उत्पन्न हुआ अर्थात् वे लज्जित हुईं, जिससे भयभीत हो फिर श्रीमहादेवजी के पास अपने मन में बड़ी चिन्ता करती हुई लौट पड़ीं।। 53।।
चौपाई
मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥1॥
भावार्थ: चिन्ता यह थी कि शंकरजी का कहना न मानकर अपनी अज्ञानतावश मैं श्रीरामचन्द्रजी के पास चली आई। सो, अब जाकर वहाँ क्या उत्तर दूँगी? इस प्रकार उनके हृदय में अत्यन्त दारुण दाह उत्पन्न हो गया।
जाना राम सतीं दुखु पावा । निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता
भावार्थ: तब यह जानकर कि सती को दुःख प्राप्त हुआ है, इससे उन्होंने (श्रीरामचन्द्रजी ने) अपना थोड़ा-सा प्रभाव प्रकटकर दिखला दिया। वह प्रभाव यह था कि मार्ग में जाते हुए सतीजी ने यह कौतुक देखा कि आगे-आगे श्रीरामचन्द्रजी जानकी और भ्राता लक्ष्मण सहित चले जा रहे हैं।
फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर बेषा
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना । सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना
भावार्थ: फिर जो घूमकर पीछे देखा तो वही सुन्दर वेषवाले प्रभु रामजी सीता और लक्ष्मण सहित सुन्दर वेष में दिखलाई पड़े। इस प्रकार जहाँ-जहाँ सतीजी ने देखा वहाँ-वहाँ वही प्रभु विराजमान हैं और मुनियों में प्रवीण सिद्धजन उनकी सेवा कर रहे हैं।
देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका
बंदत चरन करत प्रभु सेवा । बिबिध बेष देखे सब देवा
भावार्थ: उन्होंने देखा कि वहाँ अनेक ब्रह्मा, विष्णु और महेश विराजमान हैं, जो एक-से-एक अमित प्रभाववाले हैं और वे सब प्रभु श्रीरामजी के चरणों की वन्दना करते हुए उनकी सेवा कर रहे हैं, इस प्रकार अनेक वेषवाले सब देवताओं को देखा।
दोहा
सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तनअनुरूप ।। 54।।
भावार्थ: फिर उन्होंने देखा कि अगणित सरस्वती, लक्ष्मी सहित सती भी अनुपम रूप में दिखलाई पड़ रही हैं। इस प्रकार जिस-जिस वेष में अजादि देवता (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) थे, उन्हीं के शरीरानुरूप उनकी वे शक्तियाँ भी थीं।। ५४।।
देखे जहँ तहँ रघुपति जेते । सक्तिन्ह सहित सकल सुर देते
जीव चराचर जो संसारा । देखे सकल अनेक प्रकारा
भावार्थ: इस प्रकार जहाँ श्रीरामचन्द्रजी दिखलाई दिये, वहाँ शक्तियों सहित समस्त देवता भी विराजमान थे। संसार में जितने चर और अचर जीव थे, उन सभी प्रकार के जीवों को सती ने वहाँ देख लिया।
पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा । राम रूप दूसर नहिं देखा
अवलोके रघुपति बहुतेरे । सीता सहित न बेष घनेरे
भावार्थ: अनेक प्रकार के वेष धारण किये देवगण प्रभु श्रीरामचन्द्रजी का पूजन कर रहे हैं किन्तु श्रीरामचन्द्रजी का दूसरा रूप नहीं दिखलाई पड़ा अर्थात् वह रूप एक ही था। इस प्रकार सीताजी सहित श्रीरामचन्द्रजी बहुत संख्या में दिखलाई पड़े; किन्तु सबका वेश एक ही दिखलाई पड़ा।
सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता । देखि सती अति भई सभीता
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं
भावार्थ: तब वही राम, वही लक्ष्मण और वही सीताजी हैं, ऐसा देखकर सतीजी बहुत भयभीत हो गयीं। उनका हृदय काँपने लगा, देह की सुधि न रही और वे नेत्र बंद करके मार्ग में बैठ गयीं।
बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा
भावार्थ: फिर दक्षकुमारी सतीजी ने जो नेत्र खोलकर देखा तो उस स्थान में कुछ भी दिखायी न पड़ा। फिर तो भगवान् श्रीरामचन्द्रजी के चरणारविन्दों में बारम्बार अपना सिर झुकाकर जहाँ देवाधिदेव शंकरजी विराजमान थे, वे वहाँ को चल पड़ीं।