रामचरित मानस की चौपाईयां अर्थ सहित पढ़ें, आज आठवां दिन
Ramcharit Manas: गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित 'श्रीरामचरितमानस' की चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आई हैं आज उसका आठवां दिन हैं।

Ramcharit Manas: गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 8 चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रहा हैं। आज हम आपके लिए गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 8 चौपाई लेकर आए हैं। उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) एक नई पहल कर रही हैं जिसके माध्यम से आप सभी को संपूर्ण ‘श्रीरामचरितमानस’ पढ़ने का लाभ मिलें।
श्रीरामचरित मानस (Shri Ramcharit Manas) के पाठ से मनुष्य जीवन में आने वाली अनेक समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है। वैसे तो संपूर्ण रामायण का पाठ करने से हर तरह की मनोकामनाओं की पूर्ति हो जाती है, आप चाहे तो हमारे साथ जुड़कर रोजाना पाठ करें और संपूर्ण रामायण का पुण्य फल भी कमाएं। आज हम आपके लिए लेकर आए हैं गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ रामायण के प्रथम सोपान बालकांड के दोहा और चौपाई और भावार्थ।
आज श्रीरामचरित मानस की 8 चौपाईयां | Today 8 Chaupais of Ramcharit Manas
दोहा
भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास॥8॥
भावार्थ: मेरा भाग्य तो छोटा है और अभिलाषा बड़ी है, किन्तु एक विश्वास है कि सज्जन पुरुष मेरी बातें सुनकर सुख पायेंगे और दुष्ट लोग हँसी करेंगे ।।8।।
चौपाई
खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥
हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥1॥
भावार्थ: परन्तु दुष्टजनों की हँसी और निन्दा से मेरा हित ही होगा, क्योंकि कौवे कोकिल के कंठ को कठोर ही कहते हैं। इसी प्रकार हंस को बगुला और पपीहे को मेढक भी हँसते हैं, ऐसे ही मलिन स्वभाववाले इस सुन्दर वार्ता की हँसी करेंगे॥1॥
कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥
भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जो हँसें नहिं खोरी॥2॥
भावार्थ: फिर जो लोग कविता के रस के रसिक नहीं हैं और जिनका श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में स्नेह नहीं है, उनको तो यह हास्यरस युक्त होकर सुख देनेवाली है। एक तो यह कविता भाषा में हो रही है, दूसरे मेरी बुद्धि भोरी है, इससे यह हँसने ही योग्य है, तब यदि कोई हँसे तो क्या अनुचित है?॥2॥
प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी॥
हरि हर पद रति मति न कुतर की। तिन्ह कहँ मधुर कथा रघुबर की॥3॥
भावार्थ: क्योंकि जिनका भगवान् के चरणों में प्रेम नहीं है और समझ अच्छी नहीं है, उनको तो यह कथा सुनकर फीकी ही लगेगी। परन्तु जिनको श्रीहरि और श्रीमहादेवजी के चरणों में प्रेम है और जिनकी बुद्धि कुतर्कवाली नहीं है, उनको श्रीरामचन्द्रजी की यह कथा अवश्य मीठी लगेगी॥3॥
राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥4॥
भावार्थ: मुझे आशा है कि मेरी कविता को रामभक्ति से अलंकृत जानकर सज्जन लोग हृदय से सुन्दर वाणी से प्रशंसा करेंगे। क्योंकि न तो मैं कवि हूँ, और न बोलने में चतुर, और सब प्रकार की कलाओं से भी रहित हूँ॥4॥
आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥5॥
भावार्थ: इतना अवश्य जानता हूँ कि काव्य में शब्द-अर्थ और अलंकार नाना प्रकार के होते हैं और छन्द-प्रबन्ध भी अनेक प्रकार के होते हैं और उसमें भाव-भेद और रस-भेद भी हैं तथा काव्य के दोष और गुण अनेक प्रकार के होते हैं॥5॥
कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें॥6॥
भावार्थ: परन्तु क्या कहूँ; मुझमें तो काव्य का एक भी ज्ञान नहीं है, यह कोरा कागज सामने है, इस पर लिखकर सत्य कह दे रहा हूँ॥6॥
दोहा
भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक॥9॥
भावार्थ: यद्यपि मेरी कविता समस्त गुणों से रहित है, तो भी इसमें संसारविदित एक गुण अवश्य । यह विचारकर जिनको निर्मल ज्ञान है-ऐसे सज्जन मनुष्य सुनेंगे ही।।9।।