कंस और महाभारत नहीं, यह था कृष्ण के अवतार का असली मकसद

 
तो यह धर्म क्या था, जिसकी स्थापना करना कृष्ण ने अपने अवतार का प्रयोजन बताया? धर्म को लेकर हमारी चेतना साफ हो जानी चाहिए। भारतीय परम्परा धर्म का वह अर्थ नहीं लेती, जो अंग्रेजी के रिलिजन शब्द से निकलता है और जिस अर्थ-कसौटी पर इस्लाम या ईसाइयत खरे उतरते हैं। भारतीय विचार इन दोनों को धर्म नहीं, संप्रदाय या पंथ मानता है। कृष्ण ने अगर किसी धर्म की स्थापना की है तो जाहिर है कि उसमें न कोई जड़ता है और न संकीर्णता। कृष्ण जैसा अप्रतिबद्ध, कर्म-परम्परा का प्रातीक व्यक्तित्व जड़ता और संकीर्णता का हामी हो ही नहीं सकता था।

धर्म का अर्थ है जीवनमूल्य और जीवन मूल्य हैं कि हर युग में, हर व्यवसाय ही नहीं हर व्यक्ति और समाज में बदलते रहते हैं। इसलिए भारतीय परम्परा में हरेक का अपना धर्म है-राजधर्म, नारीधर्म, पतिधर्म, पुत्रधर्म, वाणिज्यधर्म, जातिधर्म, ब्राह्मणधर्म, गृहस्थधर्म, युगधर्म वगैरह। इसलिए भारत में न कभी धर्म को परिभाषाओं में बांधा गया, न ही सब पर थोप दिए जाने वाले विधि-निषेधों में जकड़ा गया और न ही उसे किसी एक व्यक्ति, ग्रंथ या उपासना विधि का प्रतीक माना गया। धर्म की ग्लानि और अधर्म के अभ्युत्थान के सन्दर्भ में साधुओं के परित्राण और दृष्कृतों के विनाश की कैसी भी व्याख्या आप करना चाहें, आपको इसी संदर्भ में करनी पड़ेगी।

इसलिए गीता में, जिसे कृष्ण का जीवनदर्शन माना जाता है, किसी एक संप्रदाय या विचारधारा को धर्म कहकर उसका प्रतिपादन नहीं किया गया। गीता में अपने समय की तमाम विचारसरणियों का विवरण है। वहां सांख्य है, योग है, कर्म है, ज्ञान है, भक्ति है, संन्यास है, ध्यान है, अक्षरब्रह्मयोग है, राजविद्या है, विभूतिवर्णन और उसका प्रतिनिधि विश्वरूप दर्शन है, प्रकृति-पुरुष विवेचन है, दैवी-आसुरी सम्पदा है, यज्ञ प्रकार हैं और मोक्ष का वर्णन है। अगर हम यह जानना चाहेंगे कि क्या कृष्ण ने इनमें से किसी धर्म का खास प्रतिपादन किया है तो गीता हमें कोई दो टूक उत्तर नहीं देती। दो टूक उत्तर यही देती है कि इसमें से किसी एक के साथ कृष्ण खुद को नहीं बांधते। बांधते होते तो इतने सारे जीवन मूल्यों का सविस्तार प्रतिपादन नहीं कर पाते। और तो और, कृष्ण ने एकाधिक बार कहा है कि जो वे अब कह रहे हैं, वह सनातन धर्म है-एष धर्म: सनातन:।

इसके भरोसे हिन्दू कर्मकांडियों ने, जो कल तक छूआछूत, पूजापाठ, कर्मकांड और जात-पात को ही इस देश की आत्मा कहते रहे और आर्य समाज के उद्भव के बाद अपने विचारों को सनातन धर्म कहना जिन्होंने शुरू किया, वे गीता की दुहाई देकर कहते थे कि देखो, वहां सनातन धर्म को महत्व मिला है और साफ कह दिया गया है कि दूसरे का धर्म मत अपनाओ, चाहे अपने धर्म के कारण मर ही क्यों न जाना पड़े – स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:। पर यह धर्म की वही कर्मकाण्डी और सांप्रदायिक व्याख्या है, जिस पर इस्लाम और ईसाइयत तो खरे उतर सकते हैं, हिंदुत्व नहीं, क्योंकि यहां धर्म का अर्थ है जीवन मूल्य या जीवन जीने की शैली, जो राजा और मंत्री के अलग-अलग हो सकते हैं, पिता और पुत्र के, भाई और बहन के, ब्राह्मण और वैश्य के, किसान और कुम्हार के, कसाई और समाज सुधारक के अलग-अलग हो सकते हैं।

कृष्ण के काम एक ही दिशा में, एक-दूसरे के साथ जुड़ते हुए, बढ़ते नजर नहीं आते। वे राक्षसों का वध करते हैं, मथुरा छोड़ द्वारका जा सकते हैं, सारथि बनते हैं और युद्ध में ही नहीं, हमेशा पांडवों का साथ देते हैं, इन सबमें कोई ऐसा सम्यक सूत्र नहीं है, जो कृष्ण के किसी एक महान लक्ष्य की ओर हमें ले जाता हो। कृष्ण पांडवों के साथ सिर्फ इसलिए नहीं थे कि पांचों पांडव कोई बड़े नैतिकतावादी या धर्म पर, मूल्यों के संदर्भ वाले धर्म पर मर मिटने वाले थे, बल्कि इसलिए थे कि धृतराष्ट्र के पुत्रों के बजाय कुन्ती पुत्र उनके ज्यादा निकट थे, अर्जुन के वे सखा थे और द्रौपदी के साथ उनके संबंधों में अपरिभाषित राग का कोई अद्भुत समावेश था।

पांडव चाहे खुद बड़े तपस्वी और महात्मा न रहे हों, पर उनके साथ पूरा न्याय नहीं हआ था, उनके विरुद्ध शुरू से ही हत्या-षड्यंत्र हुआ और वे अपने युद्ध-पूर्व व्यवहार में प्राय: उत्तेजक या क्षोभकारी नहीं हुए, उससे वे सबके चहेते बन गए थे। बिन बाप के बेटों को भटकाया गया, इससे उन्हें जन-सहानुभूति भी मिली। कृष्ण भी अगर इन सब कारणों से पांडवों के साथ हो गए हों तो क्या अजब? पर जो लोग यह कहना चाहते हैं कि पाण्डवों का पक्ष न्याय और धर्म का पक्ष था और उनके मार्फत कृष्ण कोई उद्देश्य पूरा करना चाह रहे थे तो इसे पांडवों का अधिमूल्यांकन और कृष्ण का अवमूल्यांकन ही कहा जाएगा। पांडवों से सब काम ठीक ही होते तो कृष्ण यह न चाहते कि मैं रहता तो युद्धिष्ठिर को जुआ न खेलने देता। यानी धर्मराज ने भी जुआ खेलकर अधर्म किया। पर इसी कृष्ण ने युद्ध में पांडवों से कई तरह के अनैतिक काम भी करवाए…जो युद्धिष्ठिर, भीम और अर्जुन ने हिचकिचाते हुए किए।

यानी हमारी समस्या वहीं है। कृष्ण का जीवन कामों की विविधता और परस्पर विरोंधों से भरा पड़ा है, जो हमें किसी एक प्रयोजन की ओर नहीं ले जाता। उनकी गीता कई तरह के और कहीं-कहीं परस्पर विरोधी विचारों से भरी पड़ी है, जो हमें एक विचारधारा से जुड़ने में सहायता नहीं देती। पर चूंकि कृष्ण का भारतीय मानस पर प्रभाव अप्रतिम है, उनका प्रभामंडल विलक्षण है, इसलिए साफ नजर आ रहे उनके निश्चित लक्ष्यविहीन कर्मों और निश्चित निष्कर्षविहीन विचारों में ऐसा क्या है, जिसने कृष्ण को कृष्ण बना दिया, विष्णु का पूर्णावतार मनवा दिया? कुछ तो है। वह ‘कुछ’ क्या है? 

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