मुहर्रम: ताजिये का तैमूर कनेक्शन, जानें इतिहास

इमाम हुसैन की कब्र की नकल को उर्दू में ताजिया कहा जाता है। ताजिया सोने, चांदी, लकड़ी, बांस, स्टील, कपड़े और कागज से तैयार किया जाता है। मुहर्रम की 10वीं तारीख को हुसैन की शहादत की याद में गम और शोक के प्रतीक के तौर पर जुलूस के रूप में ताजिया निकाला जाता है। ताजिये का जुलूस इमामबारगाह से निकलता है और कर्बला में जाकर खत्म होता है। ताजिये के बारे में कहा जाता है कि इसकी शुरुआत तैमूर के दौर में हुई। आइये आज इस मौके पर ताजिये का इतिहास जानते हैं….
 
ईरान, अफगानिस्तान, इराक और रूस के कुछ हिस्सों को जीतते हुए तैमूर 1398 ईस्वी के दौरान हिंदुस्तान पहुंचा। उसके साथ 98000 सैनिक भी भारत आए। उसने दिल्ली में मुहम्मद बिन तुगलक को हराकर खुद को शहंशाह घोषित किया। 
 
तैमूर का संबंध मुस्लिमों के शिया समुदाय से था। वह मुहर्रम के महीने में हर साल इराक जरूर जाता था लेकिन बीमारी की वजह से एक साल नहीं जा पाया। उसको दिल की बीमारी थी, इसलिए चिकित्सकों ने उसे सफर करने से मना किया था। 

 
तैमूर के दरबारियों ने सोचा कि मुहर्रम के दौरान कुछ ऐसा किया जाए जिससे वह खुश हो जाए। उस समय के शिल्पकारों को दरबारियों ने जमा किया और उनलोगों को इराक के कर्बला में स्थित इमाम हुसैन की कब्र का नकल बनाने का आदेश दिया। कुछ शिल्पकारों ने बांस की कमाचियों से इमाम हुसैन की कब्र का ढांचा तैयार किया। ढांचे को तरह-तरह के फूलों से सजाया गया। उसका नाम ताजिया दिया गया। ताजिये को पहली बार 801 ईस्वी में तैमूर लंग के महल के परिसर में रखा गया।
 
तैमूर के इस ताजिये की धूम बहुत जल्द पूरे देश में मच गई। देश भर से राजे-रजवाड़े और श्रद्धलु उन ताजियों को देखने के लिए पहुंचने लगे। तैमूर को खुश करने के लिए अन्य रियासतों में भी यह परंपरा शुरू हो गई। खासतौर पर दिल्ली के आसपास के इलाकों में। 

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