ठाकुर बनाम ब्राह्मण है लड़ाई, हर सीट पर बदल जाता है जातीय समीकरण

चंबल नदी राजस्थान के कोटा से श्योपुर में दाखिल होती है फिर मुरैना, भिंड से होते हुए यूपी के इटावा में 5 नदियों समेत यमुना में मिल जाती है. इसी नदी के किनारे-किनारे ही चंबल वैली मौजूद है. चंबल इलाके में श्योपुर, मुरैना और भिंड कुल तीन जिले आते हैं. इन तीन जिलों में विधानसभा की 13 सीटें हैं, जिनमें से 8 बीजेपी, 3 कांग्रेस और 2 बसपा के पास हैं. यहां हर सीट पर जातीय समीकरण बदलते हैं क्योंकि देश के बाकी इलाकों की तरह यहां प्रमुख जातियों के सर्वमान्य क्षत्रपों का अभाव है, जो कई-कई सीटों पर प्रभाव रखते हों.
ये वो इलाका है जहां चाहे लोकसभा हो या विधानसभा चुनाव 'डोमिनेंट कास्ट डेमोक्रेसी' (प्रभु जाति लोकतंत्र) लागू है. यानी कि जिस जाति के लोग ज्यादा हैं या फिर कहीं-कहीं जिस जाति के पास बाहुबल ज्यादा है, वही चुने जाते हैं और उन्हीं के हिसाब से लोकतंत्र भी लागू किया जाता है. ग्वालियर-चंबल की बात करें तो ब्राह्मण, ठाकुर और कुशवाहा (ओबीसी) यहां कई सीटों पर प्रभु जातियों की भूमिका निभाते हैं. हालांकि इन सभी 13 सीटों पर एससी/एसटी की मौजूदगी 20% से ज्यादा है लेकिन आरक्षित सीटों पर भी परोक्ष रूप से बड़ी जातियां ही चुनाव करवाती हैं.
यहां जातियों के सर्वमान्य नेता जैसा कुछ नहीं है, एक सीट पर कोई ब्राह्मण नेता है तो दूसरी सीट पर कोई और ब्राह्मणों का नेता हो सकता है. यहां अक्सर जातियां चुनाव लड़वाती हैं और उस वक़्त की परिस्थितियों के मुताबिक किसी को भी नेता बनाकर आगे कर दिया जाता है. इस इलाके में कांशीराम के बहुजन आंदोलन के बाद परस्थितियां बदली हैं. भले ही दलित शक्ति के रूप में नहीं उभरे हों लेकिन इस आंदोलन के बाद ओबीसी जातियों ने बाहुबल इकठ्ठा किया और राजनीति में हस्तक्षेप शुरू कर दिया.
जिला: श्योपुर (2 सीटें) प्रमुख जातियां: रावत, मीना (राजस्थान के मीणा यहां ओबीसी हैं), धाकड़ किरार, ब्राह्मण और मुस्लिम
श्योपुर की बात की जाए तो ये इलाका यूपी बॉर्डर से सटा हुआ है और यहां के जातीय समीकरणों पर भी यूपी की राजनीति का प्रभाव साफ़ दिखाई देता है. सहरिया आदिवासी और ओबीसी जातियां इस जिले में सबसे ज्यादा प्रभावी हैं. ये कुछ साल पहले मुरैना जिले में ही शामिल था.
1. विजयपुर पर काफी लंबे समय से कांग्रेस का कब्ज़ा है. रामनिवास रावत यहां पर लंबे समय पर काबिज हैं, 1990 से सिर्फ एक बार चुनाव हारे हैं. रावत वोट और आदिवासी इनके परंपरागत वोटर्स हैं.
2. श्योपुर सीट पर समीकरण बदलते रहते हैं इसलिए कभी कांग्रेस और कभी बीजेपी यहां जीतती है. इस सीट पर जाति आधारित वोटिंग कम होती है. कैंडिडेट के आधार पर ही मतदान होता है. मीना और किरार बीजेपी के वोटर्स हैं जिनकी मदद से 2013 में बीजेपी के दुर्गालाल विजय जीते थे.
जिला मुरैना (सीटें-6) प्रमुख जातियां: ओबीसी, एससी, ठाकुर (सिकरवार, जादौन), ब्राह्मण, बनिया
इस इलाके में कहा जाता है कि असली चंबल तो पान सिंह तोमर के मुरैना से ही शुरू होता है और इसकी सभी छह सीटों पर जाति आधारित वोटिंग होती है. कांग्रेस, बीएसपी और बीजेपी यहां समाजिक और आर्थिक रूप से बराबर की टक्कर वाली पार्टियां हैं. हालांकि ज्यादातर सीटों पर अलग-अलग जातिगत समीकरण दिखाई देते हैं.
मुरैना लोकसभा सीट परिसीमन से पहले तक रिजर्व सीट थी, इसे हटाकर अब भिंड को रिजर्व सीट बना दिया गया है. इस इलाके में दो तरह के ठाकुर मौजूद हैं. पहले मुरैना से श्योहर की बेल्ट वाले और दूसरे मुरैना से भिंड की तरफ वाले. इसे आगरा नेशनल हाइवे को आधार बनाकर समझे तो तीन सीटें सभल गढ़, जौरा और सूमावली इसके लेफ्ट में हैं और बाकी तीन मुरैना, दिमानी और अम्बाह दायीं तरफ हैं. इसी तरह ठाकुरों की दोनों उपजातियां सिकरवार और जादौन भी बंटी हुई हैं.
1. सभलगढ़- मेहरबान सिंह रावत, बीजेपी
यहां जादौन ठाकुर काफी संख्या में रहते हैं जो कि राजस्थान की करौली रियासत से संबंध रखते हैं. ये इस इलाके के सबसे अहिंसक ठाकुर माने जाते हैं. इस सीट पर दूसरी सबसे बड़ी कास्ट रावत (ओबीसी) है. रावत और जादौन के बीच मुख्य लड़ाई है. हालांकि जादौन खुद चुनावी लड़ाई में शामिल नहीं होते जिसके चलते ब्राह्मण या बनिया जाति से आने वाला उम्मीदवार यहां से जीत जाता है. रावत यहां की बाहुबली जाति है और ज्यादातर मौकों पर बाकी जातियां इनके खिलाफ इकठ्ठा हो जाती हैं. बीजेपी को रावत कैंडिडेट का फायदा मिलता है क्योंकि बनिया और ब्राह्मण भी उसका वोटर है जो मजबूत समीकरण बना लेते हैं.
2. जौरा- सूबेदार सिंह, बीजेपी
इस विधानसभा सीट पर बीएसपी का प्रभाव माना जाता है. यहां सिकरवार उपजाति के ठाकुर लोगों का काफी प्रभाव है. ये यहां की बाहुबली जाति है और इसी के चलते बाकी जातियां इनके खिलाफ एक हो जाती हैं. यहां दूसरी बड़ी कास्ट ब्राह्मण है जो कि कांग्रेस के सपोर्टर माने जाते हैं. इन्हीं दोनों जातियों के बीच संघर्ष होता है. यहां कुशवाहा काछी और धाकड़ जाति के लोग भी काफी हैं. धाकड़ और ठाकुरों के समीकरण से बीजेपी जीतती है जबकि ब्राह्मण, काछी और दलित पर कांग्रेस बसपा की नज़र होती है.
3. सूमावली- सत्यपाल सिंह सिकरवार, बीजेपी
ये चंबल का असली बीहड़ है. यहां मिलिटेंट मानी जाने वाली जातियों गुर्जर और सिकरवारों के बीच संघर्ष होता है. यहां ओबीसी और ठाकुरों के बीच लड़ाई होती है जो काफी हिंसक रूप भी ले लेती है. यहां रेत माफिया काफी सक्रिय हैं और गुर्जर इसमें शामिल रहते हैं. यहां बीएसपी का भी काफी प्रभाव है क्योंकि ओबीसी जाति काछी और एससी भी मौजूद हैं. कांग्रेस अक्सर यहां गुर्जर उम्मीदवार उतारती है जबकि बीजेपी ठाकुरों पर दांव लगाती है.
4. मुरैना- रुस्तम सिंह, बीजेपी
मुरैना शहर में बनिए, ब्राह्मण, दलित और मुसलमान प्रभावी हैं लेकिन ग्रामीण में गुर्जर बड़ी संख्या में हैं. ऐसी घटनाएं सामने आती रही हैं कि गुर्जर जाति ग्रामीण इलाकों में पोलिंग बूथ कैप्चर करके या डरा-धमका कर वोट पाने में कामयाब रहती है.
5. दिमनी- बलबीर डिंडोतिया, बसपा
यहां दलित काफी संख्या में मौजूद हैं लेकिन परदे के पीछे से लड़ाई ब्राह्मण और ठाकुर ही लड़ते हैं. इलाके में ठाकुरों के दलित और ब्राह्मणों के दलित कहकर भी बुलाया जाता है. बसपा भी यहां इलाके के ठाकुर नेताओं को साथ लेकर ही चलती है.
6. अम्बाह- सत्यप्रकाश सखवार, बसपा
रिजर्व सीट होने के चलते यहां दलित उम्मीदवार खड़ा करना मजबूरी है लेकिन लड़ाई ठाकुरों, गुर्जरों और ब्राह्मण के बीच ही है. बाहुबली जातियों के हस्तक्षेप के चलते वोट डलवाना एक बड़ी दिक्कत होती है.
जिला: भिंड (सीटें-5) प्रमुख जातियां: ओबीसी (लोधी, नरवरिया) एससी, ठाकुर (भादौरिया, कुशवाहा), ब्राह्मण
क्राइम रेट के मामले में ये इलाका सबसे आगे है. भिंड के पत्रकार खुद बताते हैं कि ये वो इलाका है जहां क्राइम को ग्लोरिफाई किया जाता है, खानदानी लड़ाईयां होती हैं और एक कदम आगे बढ़कर कहा जाए तो बच्चों को खानदानी बदला लेने के लिए ही बड़ा किया जाता है. भिंड के ही रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार देव श्रीमाली के मुताबिक पूरी दुनिया में क्रिमिनल क्राइम करने के बाद छुपता है, सबूत मिटाता है और पकड़े जाने पर भी क़ुबूल नहीं करता. इस इलाके में लोग हत्या करने के बाद पुलिस को खुद बता देते हैं जिससे उन्हें ही इसका श्रेय मिल सके.
यहां चुनाव भी निजी रंजिशों की तरह ही लड़े जाते हैं. समाज पूरी तरह जातियों में बंटा हुआ है और एक स्तर के बाद पार्टियां ख़त्म हो जाती हैं. यहां दो तरह के ठाकुर बहुसंख्यक हैं- जिनमें एक कुशवाहा और दूसरे भदौरिया. कुशवाहा ठाकुर राजस्थान में राजावत, शेखावत, शक्तावत टाइटल इस्तेमाल करते हैं. भिंड जिला इन दो ठाकुर जतियों के बीच बंटा हुआ है. गौरतलब है कि जब दिल्ली से तोमरों के शासन का अंत हुआ तो कुछ चंबल में आकार बस गए. सिंधिया से पहले ग्वालियर पर तोमरों का ही कब्ज़ा था.
1.मेहगांव- चौधरी मुकेश सिंह, बीजेपी
यहां मुरैना का जातीय ट्रेंड एकदम बदल जाता है. इस सीट पर भदौरिया ठाकुर, ब्राह्मण, जाटव और लोधी जिस जाति से उमा भारती आती हैं. यहां लड़ाई भदौरिया और ब्राह्मणों के बीच होती है.
2. भिंड- नरेश कुशवाह, बीजेपी
ग्रामीण इलाके में कुशवाहा ठाकुरों का कब्ज़ा है, दूसरे नंबर पर दलित और तीसरे पर ब्राह्मण हैं. यहां बसपा हमेशा दूसरे या तीसरे नंबर पर रहती है. बसपा ने यहां संजीव सिंह ठाकुर को टिकट दिया था और यहां मोदी की लहर के बावजूद वो सिर्फ पांच हज़ार वोटों से हारे थे. इस बार भी बसपा ने संजीव को ही यहां से उतारा है. संजीव सिंह की छवि इस इलाके में रॉबिन हुड नेता वाली है और दलित, ठाकुरों का एक हिस्सा और ओबीसी भी उन्हें सपोर्ट करते हैं.
3. लहार- गोविन्द सिंह, कांग्रेस
ये इलाका तीन तरफ से यूपी से घिरा हुआ है. यहां 1990 से ही कांग्रेस का कब्ज़ा है. ये इस इलाके की वो सीट है जहां ब्राह्मणों की संख्या सबसे ज्यादा है लेकिन फिर भी ठाकुर कैंडिडेट यहां से जीतता है. इस सीट पर ब्राह्मणों के खिलाफ गोविंद सिंह ने छोटी-छोटी ओबीसी जातियों को मिलिटेंट बना दिया है और ब्राह्मणों के खिलाफ उन्हें गोलबंद कर रखा है. गोविन्द सिंह ने इस बार बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा को यहां से चुनाव लड़ने की चुनौती भी दी हुई है.
4. अटेर- हेमंत कटारे, कांग्रेस
यहां भी भदौरिया वोटर्स सबसे ज्यादा हैं. इस सीट पर फिलहाल कांग्रेस का कब्ज़ा है. 2013 में कांग्रेस के सत्यदेव कटारे के उनके निधन के बाद 2017 के उपचुनाव में कांग्रेस से उनके बेटे हेमंत कटारे जीते थे. हालांकि हेमंत कटारे पर दुष्कर्म और अपहरण का आरोप लगने के बाद काफी कुछ बदला हुआ है. साल 1952 से 2017 के उपचुनाव सहित अटेर में 15 बार विधानसभा चुनाव हुए हैं. इनमें से 9 बार कांग्रेस, 3 बार भाजपा, 2 बार बीएसपी और 1 बार जनता पार्टी जीती है. इस सीट पर ठाकुर (भदौरिया), ब्राह्मण मतदाता सबसे ज्यादा हैं. नरवरिया, कुशवाह, बघेल, और मुस्लिम वोटर्स का भी प्रभाव यहां रहता है.
5. गोहद- लाल सिंह आर्य, बीजेपी
तोमर ठाकुर यहां सबसे प्रभावी वोट बैंक माना जाता है. हालांकि जाट और दलित भी यहां काफी संख्या में हैं. गोहद सीट अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित है. यहां से फिलहाल लाल सिंह आर्य विधायक हैं. मौजूदा समय में वे प्रदेश सरकार में राज्यमंत्री हैं. लाल सिंह आर्य इस सीट से 2013 के पहले 1998 और 2003 में भी जीत चुके हैं. पिछले चुनाव में आर्य कांग्रेस के मेवाराम जाटव को पटखनी देकर विधानसभा पहुंचने में कामयाब रहे थे. यहां ठाकुर (तोमर), ओबीसी, ब्राह्मण मतदाता निर्णायक स्थिति में होते हैं. इसके अलावा दलित, जैन समाज और मुस्लिम समाज के मतदाताओं का प्रभाव रहता है. कांग्रेस से पूर्व विधायक रणवीर जाटव या जिला पंचायत अध्यक्ष रामनारायण हिंडौलिया को टिकट मिल सकता है.
चंबल पर सवर्ण आंदोलन का असर ?
मुरैना के रहने वाले राहुल शर्मा भी सवर्ण आंदोलन में शामिल लोगों में से एक है और शहर के इलाके में मोबाइल फोन की दुकान चलाते हैं. राहुल कहते हैं कि बाहर-बाहर से ऐसा नज़र आ रहा है कि इस आंदोलन का सीधा नुकसान बीजेपी को होगा लेकिन ये इतना सीधा भी नहीं है. इस इलाके में ऐसा पहली बार हुआ है कि ब्राह्मण और ठाकुर किसी मुद्दे पर एक साथ आ रहे हैं और ओबीसी की बड़ी जातियां भी कहीं-कहीं इस आंदोलन को साथ दे रही हैं. वरिष्ठ पत्रकार देव श्रीमाली के मुताबिक इस इलाके की राजनीति में ठाकुर-ब्राह्मणों का वर्चस्व है और ये कांग्रेस और बीजेपी दोनों का वोट बैंक हो न हो लेकिन नेतृत्व ज़रूर है. भिंड जैसे इलाकों में तो बाकी जातियां संख्या में ज्यादा होने के बावजूद भी इनके बाहुबल के आगे चुनाव में कुछ ख़ास नहीं कर पाती. ऐसे में ये वर्ग अगर नाराज़ है तो कांग्रेस और बीजेपी दोनों पर ही इसका बुरा असर पड़ सकता है.
अगर सवर्ण सपाक्स जैसे संगठनों के उम्मीदवारों के जरिए ताकत दिखाने का निर्णय लेते हैं तो जीत-हार की चाभी ओबीसी और एससी के हाथ में आ जाएगी. टिकट बांटने में देरी होने के पीछे भी यही वजह है. उधर एससी/एसटी कर्मचारी संगठन अजाक्स से जुड़े मुकेश जाटव बताते हैं कि भले ही सवर्ण आन्दोलन वाले ज्यादा शोर मचा रहे हों लेकिन 2 अप्रैल को एससी/एसटी आंदोलन के दौरान हुए अत्याचारों के बाद समाज एक हो गया है. समाज के कई लोग अब भी जेल में हैं और उन्हें बाहर लाने की कोशिश की जा रही है.
मुकेश के मुताबिक भले ही बसपा अपने कैंडिडेट उतार रही है लेकिन इस बार लोग उस विकल्प की तरफ भी जा सकते हैं जो जीत के ज्यादा करीब नज़र आएगा या कहें तो बीजेपी को हराने के लिए बेहतर स्थिति में होगा.
बहरहाल, चंबल के इलाके में सवर्णों की नाराज़गी का नुकसान जातीय कॉम्बिनेशन में आए बदलाव के आधार पर ही समझा जा सकता है और ये जातीय समीकरण कैंडिडेट के आधार पर भी बदलेंगे. तस्वीर और साफ़ तब हो जाएगी जब टिकटों की घोषणा हो जाएगी. हालांकि ये कहा जा सकता है कि दलितों के संगठित होने से इलाके में बसपा का आधार और मजबूत होता नज़र आ रहा है.