पांचवा दिन: रामचरित मानस की चौपाईयां अर्थ सहित पढ़ें रोज, पाठ करने से पहले रखें इन बातों का ध्यान

Ramcharit Manas: भक्तशिरोमणि पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित 'श्रीरामचरितमानस' चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रही हैं।

Ramcharit Manas: भक्तशिरोमणि पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 12 चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आज से आपके लिए लेकर आ रही हैं। आज से हम आपके लिए रोजाना गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 12 चौपाई लेकर आते रहेंगे। आज से नववर्ष की शुरुआत हो रही हैं। इसलिए उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) एक नई पहल कर रही हैं जिसके माध्यम से आप सभी को संपूर्ण ‘श्रीरामचरितमानस’ पढ़ने का लाभ मिलें।

श्रीरामचरित मानस (Shri Ramcharit Manas) में जिनके पाठ से मनुष्य जीवन में आने वाली अनेक समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है। वैसे तो संपूर्ण रामायण का पाठ करने से हर तरह की मनोकामनाओं की पूर्ति हो जाती है, आप चाहे तो हमारे साथ जुड़कर रोजाना पाठ करें और संपूर्ण रामायण का पुण्य फल भी कमाएं। आज हम आपके लिए लेकर आए हैं गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ रामायण के प्रथम सोपान बालकांड के दोहा और चौपाई और भावार्थ

आज श्रीरामचरित मानस की 12 चौपाईयां | Today’s 12 Chaupais of Ramcharit Manas

चौपाई
बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥1॥

भावार्थ: फिर मैं उन दुष्टजनों की सच्चे भाव से वन्दना करता हूँ, जो व्यर्थ ही में बायें और दाहिने अर्थात् मित्र और शत्रु हो जाते हैं। जिनके लिए दूसरों की हानि करना ही अपना लाभ है और किसी के उजड़ जाने पर हर्ष करते और बसा हुआ देखकर विशेष दुःखी होते हैं॥1॥

हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥2॥

भावार्थ: वे हरि (श्रीविष्णु भगवान्) हर (श्रीमहादेवजी) के यशरूपी चन्द्रमा को ग्रसने के लिए राहु के समान हैं और पराये का अकाज करने में सहस्त्रबाहु के समान योद्धा हैं। जो दूसरों में दोष निकालने के लिए हजार नेत्रवाले इन्द्र के समान हैं और पराये हितरूपी घृत को बिगाड़ने में जिनका मन मक्खीरूप हो जाता है॥2॥

तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥3॥

भावार्थ: उन खलों का तेज अग्नि के समान प्रचण्ड और क्रोध यमराज के समान है और जो पाप तथा अवगुणों के धन से मानो कुबेर के समान धनी हैं। जिनका उदय होना वैसे ही उपद्रवकारक है जैसे केतु नामक तारे के उदय से अवश्य ही उपद्रव होता है, इसलिए उनका कुम्भकरण के समान सोते रहना ही अच्छा है॥3॥

पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥4॥

भावार्थ: इस प्रकार वे दुष्टजन पराया काम बिगाड़ने में अपना शरीर तक त्याग देते हैं, जैसे खेती का नाश करने के लिये स्वयं ओले भी गल जाते हैं। इसलिए उन दुष्टजनों को शेषजी के समान जानकर मैं उनकी वन्दना करता हूँ, क्योंकि श्रीशेषजी तो विष्णु भगवान् का गुणानुवाद करने के लिए सहस्रमुख धारण किये हैं, परन्तु दुष्ट तो पराये छिद्रान्वेषण के लिए ही केवल एक मुख से हजारों मुख की बातें करते हैं॥4॥

पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥5॥

भावार्थ: फिर मैं उन खलों को राजा पृथु के समान जानकर वन्दना करता हूँ कि जो पराये पाप को सुनने के लिये दश हजार कान रखते हैं। फिर मैं उनको देवराज इन्द्र के समाने जानकर विनती करता हूँ कि जिनको देवताओं की सेना अति प्रिय है, ऐसे ही खलों को सुरा (मदिरा) नीकी (प्रिय) होती है॥5॥

बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥6॥

भावार्थ: जैसे इन्द्र को अपना वज्र प्यारा होता है, वैसे ही खलों को वज्र के समान अपने कडुवे वचन प्रिय होते हैं, और वे इन्द्र के जैसे हजारों नेत्रों से पराया अमङ्गल देखा करते हैं॥6॥

दोहा
उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥4॥

भावार्थ: खलों की यह रीति है कि जब वे उदासीन, मित्र अथवा शत्रु किसी का भला सुनते हैं तो ईर्ष्या की आँच से जल जाते हैं। इसलिए मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रेम-सहित इनकी विनती करता हूँ।।4।।

चौपाई
मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥1॥

भावार्थ: यह प्रार्थना तो मैंने अपनी ओर से कर दी, परन्तु वे भूलकर भी इसका ख्याल नहीं करेंगे, जैसे कौवे को चाहे कितने भी प्रेम से पालो, पर क्या वह कभी निरामिष हो सकता है?॥1॥

बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥2॥

भावार्थ: अब मैं सन्तों और दुष्टों के भी चरणों को प्रणाम करता हूँ, यद्यपि ये दोनों ही दुखदायी हैं, तथापि उनमें कुछ अन्तर कहा गया है। एक सन्त हैं जो बिछुड़ने के समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे दुष्टजन मिलते ही दारुण दुःख देते हैं॥2॥

उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥3॥

भावार्थ: जल में कमल और जोंक साथ ही उपजते हैं, पर उनके गुण अलग-अलग होते हैं, ऐसे ही सन्त और असन्तों के भी गुण अलग-अलग होते हैं। देखिए, अमृत और मदिरा का पिता समुद्र एक ही है, पर उससे उत्पन्न दोनों के पृथक् हैं। गुण जगत् में पृथव इसी प्रकार सन्त और असन्त में भी अन्तर है, सन्त अमृत समान हैं और असन्त मदिरा के समान हैं॥3॥

भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥4॥

भावार्थ: अपनी-अपनी करनी से सब भले और बुरे संसार में यश और अपयश पाते हैं। सन्तजन अमृत, चन्द्रमा और गंगा के समान हैं, दुष्ट लोग विष, अग्नि और कर्मनाशा नदी के समान हैं॥4॥

गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥5॥

भावार्थ: इस प्रकार गुण और अवगुण को सब कोई जानते हैं, परन्तु जिसको जो अच्छा लगता है, उसके लिए वही अच्छा है॥5॥

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श्रीरामचरित मानस कितने कांडों में विभक्त हैं?

  • श्रीरामचरितमानस को पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी ने सात काण्डों में विभक्त किया है। इन सात काण्डों के नाम हैं इस प्रकार हैं।
  • बालकाण्ड: रामचरितमानस का आरंभ बालकांड से होता है। इस कांड में श्री राम के जन्म और बाल्यकाल की कथा वर्णित है। शंकर-पार्वती का विवाह भी इसकी अन्य प्रमुख घटना है। इसमें कुल 361 दोहे हैं। बालकांड रामचरितमानस का सबसे बड़ा काण्ड है।
  • अयोध्याकाण्ड: अयोध्या की कथा का वर्णन अयोध्या काण्ड के अंतर्गत हुआ है। राम का राज्याभिषेक, कैकेयी का कोपभवन जाना और वरदान के रूप में राजा दशरथ से भरत के लिए राजगद्दी और राम को वनवास माँगना और दशरथ के प्राण छूटना आदि घटनाएँ प्रमुख हैं। इस कांड में 326 दोहे हैं।
  • अरण्यकाण्ड: राम का सीता लक्ष्मण सहित वन-गमन मारीचि-वध और सीता-हरण की कथा का वर्णन अरण्यकांड में हुआ है। इसमें 46 दोहे हैं।
  • किष्किन्धाकाण्ड: राम का सीता को खोजते हुए किष्किंधा पर्वत पर आना, श्री हनुमानजी का मिलना, सुग्रीव से मित्रता और बालि का वध इत्यादि घटनाएँ किष्किंधा काण्ड में वर्णित हैं। इसमें 30 दोहे हैं। किष्किंधाकांड रामचरितमानस का सबसे छोटा काण्ड है।
  • सुन्दरकाण्ड: सुंदरकांड का रामायण में विशेष महत्व है। इस कांड में सीता की खोज में हनुमानजी का समुद्र लाँघ कर लंका को जाना, सीताजी से मिलना और लंकादहन की कथा का वर्णन है।अशोक वाटिका सुंदर पर्वत के परिक्षेत्र में थी जहाँ हनुमानजी की सीताजी से भेंट होती है। इसलिए इस काण्ड का नाम सुन्दरकाण्ड है। सुंदरकांड सब प्रकार से सुंदर है। इसके पाठ का विशेष पुण्य है और इससे हनुमान जी की विशेष कृपा प्राप्त होती है। इसमें कुल 60 दोहे हैं।
  • लंकाकाण्ड (युद्धकाण्ड): सेतुबंध करते हुए राम का अपनी वानरी सेना के साथ लंका को प्रस्थान, रावण-वध और फिर सीता को लेकर लौटना यह सब कथा लंकाकाण्ड के अंतर्गत आती है। इसमें कुल 121 दोहे हैं।वाल्मीकीय रामायण में लंकाकांड का नाम युद्धकांड है।
  • उत्तरकाण्ड: जीवनोपयोगी प्रश्नों के उत्तर इस उत्तरकाण्ड में मिलते हैं। इसका काकभुशुण्डि-गरुड़ संवाद विशेष है। इस कांड में 130 दोहे हैं। इसमें श्रीराम का चौदह वर्ष के वनवास के उपरांत परिवार वालों और अवधवासियों से पुनः मिलने का प्रसंग बहुत मार्मिक है।उत्तरकांड के साथ ही रामचरितमानस का समापन हो जाता है।

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श्रीरामचरित मानस का पाठ करने से पहले रखें इस बात का ध्यान

श्री रामचरितमानस (Shri Ramcharit Manas) का पाठ करने से पहले हमें श्री तुलसीदासजी, श्री वाल्मीकिजी, श्री शिवजी तथा श्रीहनुमानजी का आह्नान करना चाहिए तथा पूजन करने के बाद तीनो भाइयों सहित श्री सीतारामजी का आह्नान, षोडशोपचार ( अर्थात सोलह वस्तुओं का अर्पण करते हुए पूजन करना चाहिए लेकिन नित्य प्रति का पूजन पंचोपचार गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य से संपन्न किया जा सकता है ) पूजन और ध्यान करना चाहिये। उसके उपरांत ही पाठ का आरम्भ करना चाहिये।

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Deepak Vishwakarma

दीपक विश्वकर्मा एक अनुभवी समाचार संपादक और लेखक हैं, जिनके पास 13 वर्षों का गहरा अनुभव है। उन्होंने पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं में कार्य किया है, जिसमें समाचार लेखन, संपादन… More »

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