रामचरित मानस की चौपाईयां अर्थ सहित पढ़ें रोज, आज पंद्रहवां दिन
Ramcharit Manas: गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित 'श्रीरामचरितमानस' चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रही हैं।

Ramcharit Manas: गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 10 चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रहा हैं। हम आपके लिए रोजाना गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 10 चौपाई लेकर आते हैं। उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) एक नई पहल कर रही हैं जिसके माध्यम से आप सभी को संपूर्ण ‘श्रीरामचरितमानस’ पढ़ने का लाभ मिलें।
श्रीरामचरित मानस (Shri Ramcharit Manas) में जिनके पाठ से मनुष्य जीवन में आने वाली अनेक समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है। वैसे तो संपूर्ण रामायण का पाठ करने से हर तरह की मनोकामनाओं की पूर्ति हो जाती है, आप चाहे तो हमारे साथ जुड़कर रोजाना पाठ करें और संपूर्ण रामायण का पुण्य फल भी कमाएं। आज हम आपके लिए लेकर आए हैं गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ रामायण के प्रथम सोपान बालकांड के दोहा और चौपाई और भावार्थ।
आज श्रीरामचरित मानस की 10 चौपाईयां | Today 10 Chaupais of Ramcharit Manas
चौपाई
कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा॥
बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥1॥
भावार्थ: इसके पश्चात् श्रीसुग्रीवजी, श्रीजामवन्तजी और विभीषणजी तथा समस्त अंगदादि वानरों के समूह की वन्दना करता हूँ, जिनको उस अधम देह से भी श्रीरामचन्द्रजी की प्राप्ति हुई थी।
रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥
बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥2॥
भावार्थ: इस प्रकार पक्षी, मृग, देवता और समस्त मनुष्यों तथा राक्षसों सहित जो श्रीरामचन्द्रजी के चरणारविंदों के उपासक (भक्त) हैं और जो निष्काम भाव से श्रीरामचन्द्रजी के दास हैं, मैं उन सभी के कमलरूपी चरणों की वन्दना करता हूँ॥2॥
सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥
प्रनवउँ सबहि धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥3॥
भावार्थ: श्रीशुकदेवजी, सनकादि, नारदजी आदि भक्त और विज्ञान-विशारद जो बड़े-बड़े विज्ञानी मुनीश्वर हैं, उन सबको मैं पृथ्वी पर सिर रखकर प्रणाम करता हूँ कि वे अपना दास समझकर मुझ पर कृपा करें॥3॥
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥4॥
भावार्थ: फिर जगन्माता श्रीजानकीजी जो करुणानिधान श्रीरामजी की अत्यन्त प्रिय हैं, उनके दोनों चरणकमलों को मनाता हूँ, जिनकी कृपा से मुझको निर्मल बुद्धि प्राप्त होगी॥4॥
पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक॥
राजीवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक॥5॥
भावार्थ: फिर मैं मनसा, वाचा, कर्मणा उन रघुकुल के नायक यक श्रीरामचन्द्रजी के चरणकमलों की वन्दना करता हूँ कि जो सब प्रकार से योग्य हैं। जिनके कमल जैसे सुन्दर नेत्र हैं, जो सर्वदा ही धनुष-बाण धारण किए रहते हैं और जो अपने भक्तों की विपत्ति को नष्टकर सुख देनेवाले हैं॥5॥
दोहा
गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥18॥
भावार्थ: जिन श्रीसीतारामजी में केवल वाणी और उसके अर्थ तथा जल और तरंग-सा ही भेद है, जो वास्तव में अभेद हैं; उनके चरण कमलों में मेरा प्रणाम है, जिनको दुःखीजन बहुत प्रिय लगते हैं।।18।।
चौपाई
बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥1॥
भावार्थ: मैं श्रीरामचन्द्रजी के उस श्रीराम जैसे नाम की वन्दना करता हूँ, जो अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा का कारणरूप है और जो ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकरमय है और वेद का प्रणव (ॐ) स्वरूप है और वह गुण तथा उपमारहित गुण का निधान (कोष) भी है॥1॥
महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥2॥
भावार्थ: जिस महामन्त्र को शिवजी जपा करते हैं और जो काशी में वास करनेवाले प्राणियों की मुक्ति के लिये उपेदशरूप है अथवा इसी नाम का उपदेश करते हैं, और जिस नाम की महिमा को श्रीगणेशजी भलीभाँति जानते हैं, क्योंकि वे इसी नाम के प्रभाव से देवताओं में प्रथम पूजनीय हुए हैं और पूजे जाते हैं॥2॥
जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेईं पिय संग भवानी॥3॥
भावार्थ: इस नाम के प्रभाव को आदिकवि (महर्षि वाल्मीकि) जानते थे, जिसका उलटा जाप (मरा- मरा) करके वे सिद्ध हो गये। उसी नाम को सहस्त्र नाम के समान शिवजी के मुख से सुनकर पार्वतीजी ने उसे जपकर शिवजी के साथ भजन किया॥3॥
हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥4॥
भावार्थ: तब पार्वतीजी की राम-नाम पर ऐसी प्रीति देखकर श्रीमहादेवजी अत्यन्त हर्षित हुए और उनको संसार की सब स्त्रियों की मुकुटमणि जानकर अपने अंग का आभूषण कर आधे शरीर में धारण कर लिया अर्थात् अर्द्धांगिनी बना लिया। इस प्रकार श्रीमहादेवजी राम नाम के प्रभाव को अच्छी तरह जानते हैं, जिसके प्रभाव से कालकूट (हलाहल विष) ने भी उनको अमृत- सा फल दिया अर्थात् विष को भी पीकर वे अमर हो गये॥4॥
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