रामचरित मानस की चौपाईयां अर्थ सहित पढ़ें रोज, आज सैतीसवां दिन
Ramcharit Manas: गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित 'श्रीरामचरितमानस' चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रही हैं।

Ramcharit Manas: रामाधीन परमपूज्य गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 9 चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रहा हैं। हम रोजाना गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 9 चौपाई लेकर आ रहे हैं । वही उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) एक नई पहल कर रही हैं जिसके माध्यम से आप सभी को संपूर्ण ‘श्रीरामचरितमानस’ पढ़ने का लाभ मिलें।
श्रीरामचरित मानस (Shri Ramcharit Manas) में जिनके पाठ से मनुष्य जीवन में आने वाली अनेक समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है। वैसे तो संपूर्ण रामायण का पाठ करने से हर तरह की मनोकामनाओं की पूर्ति हो जाती है, आप चाहे तो हमारे साथ जुड़कर रोजाना पाठ करें और संपूर्ण रामायण का पुण्य फल भी कमाएं। आज हम आपके लिए लेकर आए हैं गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ रामायण के प्रथम सोपान बालकांड के दोहा और चौपाई और भावार्थ।
आज श्रीरामचरित मानस की 10 चौपाईयां | Today 10 Chaupais of Ramcharit Manas
दोहा
गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात ।
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात ॥ 55 ॥
भावार्थ: जब सतीजी श्रीमहादेवजी के निकट पहुँचीं तब महादेवजी ने हँसकर कुशल पूछा और कहा-सच्ची-सच्ची बात कहो कि किस प्रकार परीक्षा ली? ।।55।।
सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ । भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाई
भावार्थ: तब श्रीरामचन्द्रजी का प्रभाव समझकर सतीजी भय के मारे श्रीशिवजी से बात छिपाकर बोलीं-हे गुसाईं। मैंने तो कुछ भी परीक्षा नहीं ली, और तुम्हारे समान ही प्रणाम करके लौट आई।
जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई । मोरें मन प्रतीत अति सोई
तब संकर देखेउ धरि ध्याना । सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना
भावार्थ: आपने जो कहा वह कभी झूठा नहीं हो सकता है, मेरे मन को ऐसा विश्वास हो गया है। तब श्रीमहादेवजी ने जो ध्यान करके देखा तो सती ने जो चरित्र किया था, सब जान गये।
बहुरि राममायहि सिरु नावा । प्रेरि सतिहि जेहिं झूठ कहावा
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयं बिचारत संभु सुजाना
भावार्थ: तब रामजी की माया को समझकर शिवजी ने फिर सिर से प्रणाम किया जिसने सती की बुद्धि को फेरकर उनसे झूठ कहलवाया था। शिवजी विचारने लगे कि भगवान् की इच्छा बलवान् है।
सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा
जौं अब करउँ सती सन प्रीती । मिटइ भगति पथु होइ अनीती
भावार्थ: सतीजी ने सीता का स्वाँग किया, इससे महादेवजी के मन में बड़ा खेद हुआ। अतः उन्होंने सोचा कि यदि मैं सती के साथ प्रीति करूँगा तो भक्ति मार्ग नष्ट हो जायगा और अन्याय होगा।
दोहा
परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु ।
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु ॥ ५६ ॥
भावार्थ: प्रीति बहुत है जो छोड़ी भी नहीं जा सकती और यदि प्रेम करूँ तो बड़ा पाप होगा । इस कारण श्रीमहादेवजी ने प्रकट में तो कुछ नहीं कहा, किन्तु मन में बड़ा संताप उत्पन्न हुआ ।।५६।।
तब संकर प्रभु पद सिरु नावा । सुमिरत रामु हृदय अस आवा
एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं । सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं
भावार्थ: तब महादेवजी ने प्रभु के चरण कमलों में सिर झुकाकर श्रीरामजी का स्मरण किया तो मन में ऐसा आया कि अब इस शरीर से तो मुझसे और सती से भेंट न होनी चाहिये-ऐसा अपने मन में सत्य संकल्प किया।
अस बिचारि संकरु मतिधीरा । चले भवन सुमिरत रघुबीरा
चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई
भावार्थ: ऐसा विचारकर धीर बुद्धिवाले श्रीशिवजी रामजी का स्मरण करते हुए घर को चले। तब चलते ही यह सुहावनी आकाशवाणी हुई कि हे महादेवजी ! आपकी जय हो, आपने भक्ति को भलीभाँति दृढ़ किया।
अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना । रामभगत समरथ भगवाना
सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा
भावार्थ: भला ऐसा प्रण तुम्हारे बिना दूसरा कौन कर सकता है, तुम भगवान् श्रीराम के समर्थ भक्त हो। यह सुनकर सती को बड़ी चिन्ता उत्पन्न हुई, तब वे संकुचित हो श्रीशिवजी से पूछने लगीं।
कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला । सत्यधाम प्रभु दीनदयाला
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती । तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती
भावार्थ: हे प्रभो ! दीनदयाल ! सत्य के धाम ! आपने कौन-सा प्रण किया है? यद्यपि सतीजी ने बहुत तह से पूछा, तो भी त्रिपुरारि भगवान् शंकर ने कुछ नहीं कहा।