कांग्रेस का महाधिवेशन: सत्ता संग्राम की कठिन चुनौतियां, कैसा होगा राजनीतिक भविष्य?
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का यह 85वां महाधिवेशन था, जिसमें सभी राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों से कांग्रेस नेता व प्रतिनिधि शामिल हुए। आजादी के पहले तक कांग्रेस का महाधिवेशन अमूमन हर साल होता था। यह महाधिवेशन भी देश में मौजूदा राजनीतिक चुनौतियों, विद्वेष की राजनीति और आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर ही आयोजित किया गया था।
अजय बोकिल
सारदेश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के रायपुर में सम्पन्न तीन दिन के पूर्ण महाधिवेशन से पार्टी से देश को क्या लाभ होगा, होगा भी या नहीं, इसको लेकर सियासी हल्को में अपने अपने ढंग से आकलन किया जा रहा है।
इस महाधिवेशन में जो मुख्य बिंदु उभर कर आए हैं, वो हैं- कांग्रेस ने अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में पूरी ताकत से लड़ने का संकल्प जताया है। दूसरा, पार्टी भाजपा व साम्प्रदायिक ताकतों को परास्त करने के लिए हर संभव कोशिश करेगी। तीसरा, सामाजिक न्याय के मुद्दे को पूरी तवज्जो देगी। चौथा विवादास्पद उद्योगपति गौतम अडानी के बहाने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर सीधा हमला जारी रहेगा। पांचवा, पार्टी में युवाओं को आगे लाने की पूरी कोशिश होगी। छठा, कांग्रेस समान विचारों वाले विपक्षी दलों को एकजुट करेगी तथा सातवां पार्टी का अध्यक्ष कोई भी हो, वास्तविक कमान गांधी परिवार के हाथ में ही रहेगी।
भारतीय कांग्रेस कमेटी का यह 85वां महाधिवेशन
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का यह 85वां महाधिवेशन था, जिसमें सभी राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों से कांग्रेस नेता व प्रतिनिधि शामिल हुए। आजादी के पहले तक कांग्रेस का महाधिवेशन अमूमन हर साल होता था। लेकिन स्वतंत्रता के बाद इसका उत्साह घटता गया और पार्टी सत्ता केन्द्रित ज्यादा हो गई।
रायपुर में हुआ यह अधिवेशन भी पांच साल बाद हुआ है। इसे यूं भी समझा जा सकता है कि कांग्रेस आम चुनाव के पहले ही महाधिवेशन करती है। पिछला महाधिवेशन 2018 में नई दिल्ली में हुआ था। महाधिवेशनों में इतना अंतराल निश्चित पार्टी के संगठनात्मक ढांचे में कसावट पैदा करने में बाधक सिद्ध होता है।
यह महाधिवेशन भी देश में मौजूदा राजनीतिक चुनौतियों, विद्वेष की राजनीति और आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर ही आयोजित किया गया था। इस महाधिवेशन में कांग्रेस नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि पार्टी अब अपने दम पर विचार विमर्श और फैसले करने लगी है, लेकिन तीसरे और अंतिम दिन तक आते-आते यह बात साफ हो गई कि पार्टी में मल्लिकार्जुन खड़गे जैसा निर्वाचित अध्यक्ष भले ही हो, वास्तविक कमान राहुल गांधी के हाथ में ही रहने वाली है।
यह राहुल पर निर्भर है कि सफल ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद वह गुटों में बंटी और ऊपर से नीचे तक अंतर्कलह से जूझ रही कांग्रेस को किस तरह नियंत्रित और संचालित करते हैं।
‘भारत जोड़ो यात्रा’ से पार्टी को लाभ
महाधिवेशन में तकरीबन हर नेता ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की तारीफ के पुल बांधे। इसमें राहुल भक्ति के साथ-साथ कार्यकर्ताओं में आई निराशा छंटने का शुभ संकेत भी था। माना गया कि राहुल की इस निर्बाध यात्रा से देश में विपक्ष के लिए अनुकूल वातावरण बना है। लिहाजा राहुल अब देश में पूर्व से पश्चिम को जोड़ने के लिए पैदल यात्रा करेंगे। इससे कांग्रेस के पक्ष में माहौल और सघन होगा।
महाधिवेशन में पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के भाषण का यह अर्थ निकाला गया कि वो अब रिटायर होना चाहती हैं। लेकिन कार्यकर्ताओं में इसका गलत संदेश जाने की आशंका के चलते दूसरे ही दिन ऐसी किसी संभावना का खंडन कर दिया गया।
इससे यह बात भी पुष्ट हुई कि कांग्रेस गांधी परिवार के बिना कांग्रेस दो कदम भी नहीं चल सकती। महाधिवेशन में राहुल गांधी ने अपने भाषण में मोदी और भाजपा सरकार पर जमकर हमले बोले और कहा कि मेरा उद्देश्य में देश में नफरत के माहौल को खत्म कर शांति और प्रेम का संदेश देना है। उन्होंने यहां तक कहा कि उनका (गांधी परिवार) का 52 साल से अपना घर नहीं है।
‘सत्याग्रही’ बनाम ‘सत्ताग्रही’
तकनीकी तौर पर यह बात सही हो सकती है, लेकिन गांधी परिवार और राज सत्ता एक दूसरे के पर्याय रहे हैं। ऐसे में चाहे सीधे सत्ता हो या फिर विपक्षी जनप्रतिनिधि के नाते विशिष्ट हैसियत हो, गांधी परिवार को सरकारी खजाने से तमाम सुविधाएं मिलती ही रही हैं। ऐसे में कोई निजी घर न होने की बात लोगों को शायद ही अपील करे।
राहुल ने कांग्रेस और खुद को ‘सत्याग्रही’ और भाजपा को ‘सत्ताग्रही’ बताया। यानी कि भाजपा और आरएसएस सत्ता के लिए कुछ भी कर सकती है, जबकि कांग्रेस हमेशा ‘सत्य’ के लिए लड़ती रही है। जबकि तथ्य यह है कि आजादी के 75 सालों में से 54 साल तक तो कांग्रेस ही केन्द्र में सत्ता में रही है। बाकी बचे 21 वर्षों में भाजपा कुल 15 साल और 3 साल जनता पार्टी, 1 साल जनता दल और करीब 2 साल संयुक्त मोर्चे की सरकार ( उसे भी कांग्रेस का समर्थन था) सत्ता में रही। अगर कांग्रेस यह कहे कि उसे तो जनता ने चुना था तो यही बात भाजपा पर भी लागू होती है।
महाधिवेशन का एक फलित कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा ‘त्याग, तपस्या और बलिदान..सबसे पहले हिंदुस्तान तथा हाथ से हाथ जोड़ो’ का संकल्प है। कांग्रेस ने देश में एकता और भाईचारे का संदेश देने के लिए ‘हाथ से हाथ जोड़ो’ अभियान शुरू किया था। लेकिन असली चुनौती पार्टी के भीतर है। महाधिवेशन में भी इस बात के संकेत मिले कि ‘हाथ जुड़ने’ से पहले पार्टी नेताओं के ‘मनो को जोड़ना’ ज्यादा जरूरी है।
मध्यप्रदेश कांग्रेस के कुछ नेता जरूरी मीटिंगों में नदारद रहे। उल्टे कुछ लोगों ने तो महाधिवेशन को परस्पर शिकायत का उत्सव मान लिया था, जिसके बाद राहुल गांधी को सख्ती से कहना पड़ा कि ऐसी शिकायतें लेकर मेरे पास न आएं। ‘हाथ से हाथ जोड़ो’ की जमीनी हकीकत ये है कि आज कांग्रेस में आने वालों से ज्यादा जाने वालों की संख्या बढ़ रही है। इस पर लगाम कैसे लगे, लोगों को कांग्रेस में अपना राजनीतिक भविष्य कैसे दिखे, यह पार्टी की बड़ी चिंता होनी चाहिए।
राजनीतिक पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र का सवाल
महाधिवेशन में पार्टी ने भाजपा से लड़ने और लोकतंत्र को बचाने का जज्बा दिखाया। दूसरी तरफ पार्टी के निर्वाचित अ.भा.अध्यक्ष ने कांग्रेस कार्यसमिति में निर्वाचित सदस्यों की व्यवस्था को खत्मकर नामांकन प्रणाली शुरू करने का फैसला किया। तर्क वही था कि चुनाव से पहले सीडब्लूसी सदस्यों के चुनाव से आंतरिक फूट और बढ़ेगी।
विडंबना यह है कि भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोकतंत्र के लिए लड़ने और पल-पल उसकी दुहाई देने वाली तकरीबन सभी राजनीतिक पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र नदारद है। कांग्रेस में तो यह बहुत पहले ही हो गया था ( बरसों बाद वहां अध्यक्ष का चुनाव हुआ है), लेकिन अब भाजपा जैसी पार्टियों में भी यह शुरू हो चुका है। साफ कहें तो सत्ता की तलवार सबसे पहले पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र पर ही गिरती है।
रहा सवाल इस महाधिवेशन के राजनीतिक लाभ का तो यह आगामी चुनाव नतीजों से तय होगा। पार्टी अडानी को अगर कोर मुद्दा बनाएगी तो हो सकता है कि देश का कॉर्पोरेट सेक्टर कांग्रेस से खफा हो जाए। दूसरे, अडानी की आड़ में मोदी पर बार-बार अटैक होंगे तो मुमकिन है कि हमेशा की तरह मोदी उसे भी अपनी ताकत बना लें। यह मुद्दा कांग्रेस के लिए बूमरेंग भी हो सकता है। वैसे भी ‘मोदी बचाओ अभियान’ तो अघोषित रूप से शुरू हो ही चुका है।
लोकसभा चुनाव तक आते-आते वह चुनाव का सबसे अहम मुद्दा होगा, यह बात कांग्रेस को समझनी चाहिए। अगर ऐसा हुआ तो वोटों का ध्रुवीकरण सिर्फ ‘मोदी के पक्ष में अथवा विपक्ष में’ होगा। इसमें घाटे में कांग्रेस ही रहेगी। कांग्रेस ने सामाजिक न्याय का मुद्दा जोर शोर से उठाने और स्वयं संगठन में तदनुसार बदलाव करने का सही निर्णय लिया है। इससे सकारात्मक संदेश जाएगा, लेकिन कई गैर कांग्रेसी विपक्षी पार्टियां भी इसी मुद्दे पर राजनीति कर रही हैं, ऐसे में इसका राजनीतिक मलाई कौन खाएगा, इस पर टकराव हो सकता है।
महाधिवेशन में कांग्रेस ने समान विचारों वाले राजनीतिक दलों के साथ गठबंधन की बात कही है। वैसे भी वो यूपीए की अगुवाई कर ही रही है। लेकिन उन राज्यों के सत्तारूढ़ अथवा प्रमुख विपक्षी दलों को साथ लाना टेढ़ी खीर है। जैसे कि टीएमसी, समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, वायएसआर कांग्रेस, तेलुगू देशम, अकाली दल, बहुजन समाज पार्टी, माकपा आदि। ये सब कांग्रेस के झंडे तले एक होकर अपने राजनीतिक हितों को तिलांजलि देकर हर हाल में सीटों पर चुनावी समझौता कर लेंगे, इसकी संभावना नहीं के बराबर है। ऐसा देश में केवल में 1977 में हुआ है, लेकिन वैसे हालात अभी नहीं हैं।
चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन पर टिकी निगाहें
सबसे अहम बात चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन है। जमीनी सच्चाई यही है कि कांग्रेस संगठन अभी भी बहुत दमदार नहीं है। अनुशासन और प्रतिबद्धता का टोटा है, जबकि उसका मुकाबला भाजपा जैसी उस पार्टी से है, जो 24 घंटे चुनावी मोड में चलती और दौड़ती है। कांग्रेस के नेतृत्व में अगले चुनाव में कोई महागठबंधन बनेगा या नहीं, यह भी इस साल होने वाले नौ राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों पर निर्भर करेगा।
कांग्रेस इन राज्यों में अच्छा प्रदर्शन कर पाई तो वह अगले लोकसभा चुनाव में विपक्ष की अगुवाई करने की स्थिति में होगी और उसका केन्द्र में विपक्षी सरकार देखने का सपना भी तब पूरा होगा, जब कांग्रेस खुद अपने दम पर सौ से ज्यादा लोकसभा सीटें जीत कर दिखाएगी।
भाजपा और मोदी सरकार से लोगों की नाराजी का कुछ फायदा उसे मिल सकता है, लेकिन उस नाराजी को सही ढंग से भुनाने के लिए भी सक्षम मशीनरी चाहिए। जहां तक राहुल गांधी के अगले प्रधानमंत्री बन सकने या उनके नेतृत्व में कांग्रेस के सत्ता में लौटने की संभावना की बात है तो यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि वो सद्भभावना और सौहार्द के साथ अपनी पार्टी की रहनुमाई किस दबंगई और निर्णय क्षमता के साथ करते हैं। क्योंकि महायात्री होना एक बात है और सत्ता का महारथी बनना अलग बात।
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