Kharchi Pooja: जाने खर्ची पूजा किस राज्य से सम्बंधित है?

दक्षिण भारत के राज्य त्रिपुरा के प्रमुख त्यौहारों में से एक है खर्ची पूजा (Kharchi Pooja)। यहां के आदिवासियों की सबसे बड़ी पूजाओं में से एक है खर्ची पूजा। यह त्यौहार आदिवासियों द्वारा 7 दिनों तक बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है।

Kharchi Pooja के दौरान वह 14 देवताओं और देवियों की पूजा करते हैं। यह त्यौहार अगरतला में जुलाई अथवा अगस्त महीने में मनाया जाता है। एक सप्ताह तक चलने वाली शाही पूजा जुलाई या अगस्त महीने में पड़ने वाली अमावस्या के आठवें दिन की जाती है।

किन देवी-देवताओं की होती है पूजा

हर, उमा, हरि, माँ, वाणी, कुमार, गणम्मा, विधि, पृथ्वी, समुद्र, गंगा, शिखी, काम और हिमाद्री। इन सभी देवताओं की मूर्तियाँ पूर्ण नहीं हैं केवल सिर हैं। इनमें ग्यारह मूर्तियाँ अष्टधातु की हैं और शेष तीन मूर्तियाँ सोने की हैं। ये हैं- हर, उमा और हरि।

14 देवताओं के आदिवासी नाम

इन सभी देवताओं के आदिवासी नाम किसी को मालूम नहीं। केवल मंदिर का पुजारी जिसे चंताई कहते हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसका उत्तराधिकारी ही जानता चला आ रहा है। इस तरह इन नामों का गुप्त रहना ही पवित्रता और जागृत देवता होना माना जाता है।

खर्ची शब्द का अर्थ

खर्ची शब्द ख्या शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है ‘पृथ्वी’। खर्ची पूजा मुख्य रूप से पृथ्वी की पूजा करने के लिए की जाती है। सभी अनुष्ठान आदिवासी मूल के हैं, जिनमें चौदह देवताओं और मातृ पृथ्वी की पूजा शामिल है।

List of Monthly Holidays 2022 | Month Wise Government Holidays in 2022

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इस परंपरा से जुड़ी कथा

  • प्राचीन राजमाला के अनुसार एक दिन राजा त्रिलोचन की रानी हीरावती नदी पूजा करने जा रही थी। उन्हें आवाज सुनाई दी कि रानी माँ हमें बचाओ, हमारी रक्षा करो। फिर उन्होंने अपना परिचय 14 देवताओं के रूप में दिया।
  • उन देवताओं ने कहा कि राक्षस रूपी भैंसा हमारे पीछे पड़ा है, जिसके डर के कारण हम सेमल के पेड़ पर बैठे हैं। यह सुनकर रानी माँ ने कहा कि मैं साधारण स्त्री तुम्हारी किस प्रकार सहायता कर सकती हूं।
  • तो देवताओं ने कहा कि आप अपना रिया (वक्षस्थल ढकने वाला कपड़ा) इस भैंस पर डाल दोगी तो यह शांत हो जाएगा। उसके बाद इसकी बलि दे देना। रानी हीरावती ने ऐसा ही किया। इसके बाद रानी इन 14 देवताओं को राजमहल ले आई।
  • इस घटना का दिन था-आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि।
  • तभी से ये 14 देवता राज परिवार के साथ-साथ समस्त आदिवासी जाति के कुल देवता हैं। प्रतिवर्ष इसी तिथि को इन चौदह देवताओं की पूजा की जाती है।

चंताई करता है इनकी पूजा

खर्ची पूजा सात दिन चलती है। पूजा के दिन मुहूर्त पर चंताई, राजा की वेषभूषा में आगे-आगे चलता है, और इससे आगे होता है उसका अंगरक्षक, जो तलवार-ढाल लेकर चलता है। चंताई के पीछे होते हैं उसके चौदह सेवक, जो इन देवताओं की एक-एक मूर्ति गोद में लिए होते हैं। देवताओं को साथ लिए, बाँस के छातों से छाया किये रखते हैं। ये सब दर्शनार्थियों सहित, इन देवताओं की मूर्तियों को पास की पवित्र नदी में स्नान करा कर पूजा स्थल पर स्थापित करते हैं। सबसे आगे प्रदेश सरकार की पुलिस का बैण्ड होता है। पूरी तरह सरकारी देख-रेख में यह सब होता है। चंताई द्वारा पहनी जाने वाली विशेष प्रकार की सोने की माला भी सरकारी ट्रेजरी में सुरक्षित रहती है, जो इन्हीं दिनों खजाने से निकाल कर चंताई को दी जाती है।

मिट्टी से बने आदमी की जाती है बलि

पूजा का विशेष चरित्र जीव बलि देना है। इस दिन हजारों की संख्या में बकरी, मुर्गी, कबूतरों और हंसों की बलि दी जाती है। कहा जाता है कि पुराने समय में नरबलि की प्रथा थी। राजा गोविंद मानक्य ने १७ वीं शताब्दी में इस नरबलि प्रथा पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। उसके बाद नरबलि के प्रतीक रूप में मिट्टी से बने आदमी की प्रतीकात्मक बलि दी जाने लगी।

पूजा के दिन चंताई होता है एक दिन का राजा

कहते हैं पूजा के दिन चंताई एक दिन को पूर्ण राजा होता था और पूरे शासन की बागडोर एक दिन के लिए चंताई के हाथ होती थी। राजा को भी चंताई की आज्ञा का पालन करना होता था। परंतु यह सब अतीत की बात है।

सालभर केवल 3 देवताओं की होती है पूजा

साल भर केवल इन सात दिनों में से प्रथम दिन ही चौदह देवताओं की पूजा होती है, बाकी पूरे साल केवल तीन देवताओं की पूजा होती है। ये हैं हर शंकर, उमा पार्वती, और हरि विष्णु। बाकी ग्यारह देवता एक लकड़ी के बक्से में बंद करके चंताई की देख-रेख में सुरक्षित रख दिये जाते हैं। खर्ची पूजा स्थल और चौदह देवताओं का मंदिर अगरतला शहर से 15 किमी दूर उत्तर में खैरनगर के पास है। यह मंदिर राजा कृष्ण मानिक्य ने अठारहवीं शताब्दी के मध्य बनवाया था। प्राचीन मंदिर अगरतला शहर से 57 किलोमीटर दूर दक्षिण में उदयपुर के पास है।

खर्ची पूजा (Kharchi Pooja): त्रिपुरा की लोक-कथा

खर्ची पूजा त्रिपुरा के सभी आदिवासियों की सबसे बड़ी पूजाओं में से एक है। प्राचीन इतिहास राजमाला के अनुसार इन चौदह देवताओं की पूजा सर्वप्रथम राजा त्रिलोचन ने शुरू की, जो महाभारतकाल के राजा युधिष्ठिर के समकालीन थे। इस पूजा के प्रचलन के विषय में एक सुंदर लोककथा प्रचलित है कि राजा त्रिलोचन की रानी हीरावती एक दिन नदी पूजा करने जा रही थी, कि उन्हें आवाज सुनायी दी कि, रानी माँ हमें बचाओ, हमारी रक्षा करो। फिर उन्होंने अपना परिचय चौदह देवताओं के रूप में दिया। देवताओं ने कहा कि हमारे पीछे राक्षस रूपी भैंसा पड़ा है, जिसके डर के कारण हम सेमल के पेड़ पर बैठे हैं। रानी माँ तुमको छोड़कर कोई हमारी रक्षा नहीं कर सकता। यह सुनकर रानी माँ ने कहा, मैं साधारण स्त्री तुम्हारी किस प्रकार सहायता कर सकती हूँ। फिर देवताओं ने रानी को उपाय बताया कि तुम अपना रिया (वक्षस्थल ढकने वाला कपड़ा) इस भैंस पर डाल दोगी तो यह आपके वशीभूत होकर शांत हो जायेगा। उसके बाद इसकी बलि दे देना। रानी ने ऐसा ही किया और प्रजा की सहायता से भैंसे की बलि दे दी गयी।

इसके बाद रानी इन चौदह देवताओं को राजमहल ले आयी। इस घटना का दिन था-आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि। तब से ये चौदह देवता राज परिवार के साथ-साथ समस्त आदिवासी जाति के कुल देवता हैं। प्रतिवर्ष इसी तिथि को इन चौदह देवताओं की पूजा की जाती है।

इन चौदह देवताओं के हिन्दू नाम हैं, हर, उमा, हरि, माँ, वाणी, कुमार, गणम्मा, विधि, पृथ्वी, समुद्र, गंगा, शिखी, काम और हिमाद्री। इन देवताओं की पूर्ण मूर्तियाँ नहीं हैं केवल सिर की मूर्तियाँ हैं। इनमें ग्यारह मूर्तियाँ अष्टधातु की हैं और शेष तीन मूर्तियाँ सोने की हैं। ये हैं-हर, उमा और हरि। इन देवताओं के आदिवासी नाम किसी को मालूम नहीं। केवल मंदिर का पुजारी जिसे चंताई कहते हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसका उत्तराधिकारी ही जानता चला आ रहा है। इस तरह इन नामों का गुप्त रहना ही पवित्रता और जागृत देवता होना माना जाता है।

यह पूजा सात दिन तक चलती है। पूजा के दिन मुहूर्त पर चंताई,राजा की वेषभूषा में आगे-आगे चलता है, और इससे आगे होता है उसका अंगरक्षक, जो तलवार-ढाल लेकर चलता है। चंताई के पीछे होते हैं उसके चौदह सेवक, जो इन देवताओं की एक-एक मूर्ति गोद में लिए होते हैं। देवताओं को साथ लिए, बाँस के छातों से छाया किये रखते हैं। ये सब दर्शनार्थियों सहित, इन देवताओं की मूर्तियों को पास की पवित्र नदी में स्नान करा कर पूजा स्थल पर स्थापित करते हैं। सबसे आगे प्रदेश सरकार की पुलिस का बैण्ड होता है। पूरी तरह सरकारी देख-रेख में यह सब होता है। चंताई द्वारा पहनी जाने वाली विशेष प्रकार की सोने की माला भी सरकारी ट्रेजरी में सुरक्षित रहती है, जो इन्हीं दिनों खजाने से निकाल कर चंताई को दी जाती है।

पूजा का विशेष चरित्र जीव बलि देना है। इस दिन हजारों की संख्या में बकरी, मुर्गी, कबूतरों और हंसों की बलि दी जाती है। कहा जाता है कि पुराने समय में नरबलि की प्रथा थी। राजा गोविंद मानक्य ने १७ वीं शताब्दी में इस नरबलि प्रथा पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। उसके बाद नरबलि के प्रतीक रूप में मिट्टी से बने आदमी की प्रतीकात्मक बलि दी जाने लगी।

कहते हैं पूजा के दिन चंताई एक दिन को पूर्ण राजा होता था और पूरे शासन की बागडोर एक दिन के लिए चंताई के हाथ होती थी। राजा को भी चंताई की आज्ञा का पालन करना होता था। परंतु यह सब अतीत की बात है।

साल भर केवल इन सात दिनों में से प्रथम दिन ही चौदह देवताओं की पूजा होती है, बाकी पूरे साल केवल तीन देवताओं की पूजा होती है। ये हैं हर शंकर, उमा पार्वती, और हरि विष्णु। बाकी ग्यारह देवता एक लकड़ी के बक्से में बंद करके चंताई की देख-रेख में सुरक्षित रख दिये जाते हैं। खर्ची पूजा स्थल और चौदह देवताओं का मंदिर अगरतला शहर से १५ किलोमीटर दूर उत्तर में खैरनगर के पास है। यह मंदिर राजा कृष्ण मानिक्य ने अठारहवीं शताब्दी के मध्य बनवाया था। प्राचीन मंदिर अगरतला शहर से ५७ किलोमीटर दूर दक्षिण में उदयपुर के पास है।

खर्ची पूजा के इस दिन समस्त त्रिपुरा के आदिवासी लोग अपने कुल देवता की पूजा करने और पुरानी संस्कृति को सँजोए रखने को, हजारों की संख्या में एकत्रित होते हैं। अब यह पूजा केवल आदिवासियों की ही नहीं, अपितु समस्त त्रिपुरावासियों की है। इसमें सभी श्रद्धा तथा आस्था से शामिल होते हैं।

Fairs and Festivals Question

खर्ची पूजा को भारत के किस राज्य में मनाया जाता है?

  • असम
  • अरुणाचल प्रदेश
  • त्रिपुरा
  • सिक्किम

Answer : सही उत्तर त्रिपुरा है
यह त्योहार मुख्य रूप से त्रिपुरा राज्य से उत्पन्न हुआ है। पहले यह त्रिपुरा के शाही परिवार का त्योहार था, वर्तमान में, यहां तक कि सामान्य परिवार भी इस त्योहार को मनाते हैं। यह 10 दिनों की अवधि में मनाया जाता है और प्रत्येक वर्ष जुलाई के महीने में होता है। यह त्योहार भगवान शिव के सम्मान में मनाया जाता है। प्रत्येक वर्ष हजारों लोग अगरतला में इस मंदिर की यात्रा करते हैं जिससे वे देवताओं को श्रद्धांजलि अर्पित कर सकें। मंदिर समिति जनता के आनंद के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रमों और मेलों का आयोजन भी करती है।

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